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Lok Sabha Election: रतलाम में भूरिया vs भूरिया की लड़ाई रही दिलचस्प, एक ने कांग्रेस छोड़ी तो दूसरे को भोपाल छोड़ना पड़ा – Lok Sabha Election fight between Bhuria against Bhuria was interesting one left Congress and other had to leave Bhopal

झाबुआ में 1998 में कामो चुनाव दो बड़ी फिल्म के भूरिया स्टूडियो के बीच सबसे पहले दिलचस्प कंपनी के लिए जाना गया। दलीप सिंह भूरिया 1998 से इस सीट से भाजपा गायब होकर दिल्ली जाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। 16 साल बाद 2014 का नोवोस्तीक चुनाव वे भाजपा सांसद बने।

द्वारा नीरज पांडे

प्रकाशित तिथि: शनिवार, 06 अप्रैल 2024 04:00 पूर्वाह्न (IST)

अद्यतन दिनांक: शनिवार, 06 अप्रैल 2024 04:00 पूर्वाह्न (IST)

लोकसभा चुनाव: नागालैंड में भूरिया बनाम भूरिया की लड़ाई दिलचस्प, एक ने कांग्रेस छोड़ी तो दूसरे ने भोपाल रखा
भूरिया के खिलाफ भूरिया की दिलचस्प लड़ाई रही

पर प्रकाश डाला गया

  1. भूरिया के खिलाफ भूरिया की दिलचस्प लड़ाई रही
  2. एक के मन में भाजपा से न्यूनतावादी विचारधारा की इच्छा जागेगी
  3. दूसरे को न्यूनतम पद के लिए मंत्री पद पर रखा गया

सावंतसिंह मंदिर, झाबुआ। रियलिटी-झाबुआ क्षेत्र की राजनीति में भूरिया के खिलाफ भूरिया की राजनीतिक लड़ाई दिलचस्प है। दोनों के बीच एक-दूसरे को पकड़ने की होड़ मची रही है। पहले जब कांग्रेस में रहे तो गुटबंदी चलती रही। जब अलग-अलग दल में बंट कर लड़ने लगे तो मुकाबला ही अलग तरह का हो गया। यह प्रतियोगिता भी एक-दो साल नहीं बल्कि डेढ़ दशक से भी ज्यादा चली।

केंद्र आम चुनाव की लड़ाई

1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ कांग्रेस के ही बड़े नेताओं ने अविश्वास जताया तो दिग्गज सांसद दिलीप सिंह भूरिया का कांग्रेस से मोह भंग हो गया। दिल्ली में भी सैलून चल रही थी। नतीजों में कहा जा रहा है कि 1998 में लोकसभा चुनाव में अल्पसंख्यक भूरिया ने बीजेपी से लड़ाई का मन बना लिया। जब वे भाजपा में गए तो कांग्रेस अपने प्रतिद्वंद्वी के नेता फिर से लग गई। कैबिनेट मंत्री कांतिलाल भूरिया को निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुना गया है। दो भूरिया में नोबेल जंग शुरू हुई।

दोनों को संदेश भेजा गया था

1980 से कांग्रेस के अल्पसंख्यक समाजवादी पार्टी में बैठने वाले दिलीप सिंह भूरिया की इच्छा थी कि अब वे भाजपा के अल्पसंख्यक बने। इसलिए राजनीतिक संदेश यह है कि रालोद-झाबुआ संसदीय सीट पर कांग्रेस नहीं बल्कि दिलीप सिंह भूरिया जीते हैं। पार्टी उनके पीछे की ओर चलती है। अन्य कांतिलाल भूरिया यह राजनीतिक संदेश देना चाहते हैं कि कांग्रेस इस क्षेत्र में मजबूत है। किसी भी नेता के निकलने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। चुनावी प्रचार के बीच आरोप-प्रत्यारोप भी खूब चला।

एक साल बाद फिर चुनाव

1998 का चुनाव दो बड़ी डॉक्यूमेंट्री के बीच सबसे पहले दिलचस्प प्रॉपर्टी के लिए जाना जाता है। इस चुनाव में कांग्रेस समिति कांतिलाल भूरिया को जीत मिली। दिल्ली जाने के लिए उन्हें प्रदेश के मंत्री पद पर रखा गया। एक साल बाद देश में चल रही राजनीतिक उथल-पुथल के कारण फिर से हुआ लोकसभा चुनाव। 1999 के चुनाव में दूसरी बार कांग्रेस और बीजेपी ने फिर से अपने भूरियाओं को नुकसान पहुंचाया। इस बार कांग्रेस के भूरिया बड़े अंतरराज्यीय चुनाव में जीते।

जितवाकर देना दिखा

फिर 2004 में लोकसभा चुनाव आया तो भाजपा को अनुकूल माहौल मिला। इसका कारण यह था कि सात विधानसभाओं में से आठ में संसदीय सीट पर भाजपा ने पहली बार अपना विधायक बनाया था और चार महीने पहले उनका हाथ भोपाल की सत्ता पर भी पड़ गया था। भाजपा ने दिलीप सिंह भूरिया के टिकट काटे गए झाबुआ के पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष रेलम चौहान को सलाह दी। बताया जाता है कि उस समय टिकट कटने से नाराज दिलीप सिंह भूरिया ने भोपाल में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष कैलाश जोशी को कहा था कि अब चुनाव जिता देना है। हुआ भी यही, चिंता कांतिलाल भूरिया अनुकूल नहीं होने के बावजूद चुनाव जीत गए ।।

घूमकर फिर आये

2004 के बाद दिलीप सिंह भूरिया ने भाजपा को गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को खत्म करने का आश्वासन दिया। कुछ दिन बाद वापस कांग्रेस में आ गये। अगले चुनाव से पहले घूमकर फिर भाजपा में आ गये। 2009 का आम चुनाव फिर दो भूरियाओ के बीच मुकाबला हुआ। परिणाम के पक्ष में चल रहा है।


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