मुस्लिम स्वाधीनता सेनानी ने दिया था ‘भारत माता की जय’ का नारा? – BBC News हिंदी
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देश के हिंदुत्ववादी राजनेता और नेता-कार्यकर्ता अक्सर ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते हैं। लेकिन इतिहासकारों के एक समूह का कहना है कि 1857 में देश में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी ने सबसे पहले इसे नारा दिया था।
हाल में ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं जहां मुस्लिम समुदाय के लोगों से सवाल किया जाता है कि वो भारत माता की जय का नारा लगाने के लिए तैयार क्यों नहीं होते।
कुछ वर्षों के दौरान ऐसी घटनाएं देखने को मिलीं जब किसी लड़की के साथ किसी की भीड़ ने बदसालूकी की और उनसे कुछ मामलों में प्रताड़ना का शिकार होने वाले मुस्लिम लोगों से लेकर भरोसेमंद दोस्तों को वास्तव में भारत माता की जय का नारा कहने की कोशिश करते देखा। .
इतिहासकारों का एक समूह ही यह संकेत देता है कि यह नारा एक मुस्लिम स्वाधीनता सेनानी ने दिया था। लेकिन केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के एक भाषण के माध्यम से आम लोगों को इसकी जानकारी मिली है।
न्यूज एजेंसी पीटीआई ने विजयन की ओर से सोमवार को उस भाषण का उद्धरण देते हुए एक विज्ञप्ति जारी की है।
विज़िट में कहा गया है, “संघ परिवार के लोग यहां बैठे लोगों के सामने भारत माता की जय का नारा लगाते हैं। क्या पता है कि यह नारा दिया गया था। मुझे नहीं पता कि संघ परिवार के बारे में इस बात की जानकारी है।” या फिर उसका नाम अज़ीमुल्लाह ख़ान था।”
इतिहासकारों के अनुसार, अजीमुल्ला खान वर्ष 1857 में होने वाले पहले स्वतंत्रता संग्राम थे, जिन्हें कई लोग विद्रोहियों के नाम से भी जानते हैं, जिनके सबसे अहम किरदारों में से एक थे।
इतिहासकार और लेखक सैयद उबैदुर रहमान अब्बास अब्बास कहते हैं, “इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अज़ीमुल्ला ख़ान ने ही ‘मादारे वतन हिंदुस्तान ज़िंदाबाद’ का नारा दिया था।”
इतिहासकारों का कहना है कि ‘भारत माता की जय’ आजमुल्ला खान के उस नारे का हिंदी अनुवाद है।
लेकिन इस्लामी धर्मशास्त्र विशेषज्ञ मोहम्मद कमरुज्जमां कहते हैं, “मादरे वतन हिंदुस्तान जिंदाबाद का शाब्दिक अनुवाद ‘मातृभूमि भारतवर्ष जिंदाबाद’ है।”
केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने कहा था कि जिस तरह का नारा आब्दी हसन सफारानी ने ‘जय हिंद’ का नारा दिया था, उसी तरह मोहम्मद इकबाल महान ने देशभक्ति गीत ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ लिखा था।
कौन थे अज़ीमुल्लाह खान
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सैयद उबैदुर रहमान के रिश्तेदार बायोग्राफिकल इनसाइक्लोपीडिया एएफ़ इंडियन मुस्लिम फ्रीडम फाइटर्स में अज़ीमुल्ला खान पर एक अलग अध्याय है। इसमें लिखा है, “अजीमुल्ला खान 1857 के विद्रोह के शीर्ष नेताओं में से एक थे। वो अंग्रेजी और अंग्रेजी सहित कई विदेशी समुद्रों में पारंगत थे। बाकी कई स्वाधीनता सेनानियों को विदेशी समुद्र का वास्तविक ज्ञान नहीं था। वो लगातार शीर्ष ब्रिटिश अधिकारियों के साथ थे।” बातचीत चल रही थी। उस समय जब भारत में ज्यादातर लोगों का मानना था कि ब्रिटिश सेना अजेय है, उन्होंने तुर्की, क्रीमिया और यूरोप का दौरा किया था तो देखा कि वहां ब्रिटिश सेना हार रही है।”
रहमान ने लिखा है कि अजीमुल्ला लेटरल पेशवा द्वितीय बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहब के दीवाने थे। बाद में वो अपने प्रधानमंत्री बने। पेशवा मराठा साम्राज्य के राजा थे।
हिंदू राष्ट्रवाद के जनरल कहे जाने वाले विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी किताब द इंडियन वॉर ऑफ डिपेंडेंस एएफ 1857 में अज़ीमुल्ला खान के बारे में लिखा है, “अजीमुल्ला खान 1857 के विद्रोह के सबसे यादगार स्मारकों में से एक थे। अज़ीमुल्ला खान उन लोगों में से एक थे। विशेष स्थान के बारे में सबसे पहले सिक्के की लड़ाई के बारे में सोचा गया था।”
पेशवा द्वितीय बाजीराव का दत्तक पुत्र होने की वजह से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बाजीराव के निधन के बाद नाना साहब की पेंशन बंद कर दी थी।
सावरकर के अलावा कई अन्य इतिहासकारों ने भी लिखा है कि उत्तराधिकार के विवाद को लेकर नाना साहब ने अजीमुल्ला खान को इंग्लैंड भेजा था। अज़ीमुल्ला सेमेस्टर दो साल तक इंग्लैंड में थे। वो साल 1855 में भारत में दोबारा।
अंग्रेजी और फ्रेंच सहित कई विदेशी समुद्रों में पारंगत होने के बावजूद अज़ीमुल्ला खान का बचपन बेहद गरीबी में बीता था। इतिहासकारों ने लिखा है कि उन्हें और उनकी मां को वर्ष 1837-38 में अकाल पड़ा था। कानपूर में एक ईसाई मिशन में शरण मिली थी।
इतिहासकारों का कहना है कि किसी भी दौर में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों के घरों में कभी वेटर तो कभी बावर्ची पर भी काम किया। इसी दौरान उन्होंने अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाएं सीखीं।
इंग्लैंड और यूरोप के दौरे के बाद अज़ीमुल्ला ख़ान तुर्की और क्रीमिया चले गए। भारत वापसी के बाद उन्होंने नाना साहब को विद्रोह शुरू करने की सलाह दी।
स्वतंत्रता के माध्यम से स्वतंत्रता की अपील
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अज़ीमुल्ला ख़ान ने यूरोप से वापसी के बाद पयामे कैसल नामक एक नामांकन शुरू किया। यह उर्दू, मराठी और हिंदी में छपा था। वो यूरोप से एक जापानी मशीन ले आए थे। उनकी किताब एक ही मशीन पर छपाई थी।
उर्दू पत्रकारिता के इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम के संस्थापक फैसल फारूकी ने कहा कि अजीम अब्दुल्ला खान अपने उसी अनुयायी के विद्रोह और स्वतंत्रता की विचारधारा को बढ़ावा देने लगे।
वह कहते हैं, “वो अपने धर्म के माध्यम से एक साथ मुस्लिम, हिंदू, सिख यानी सभी समुदायों के लोगों को बार-बार समानता के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जिस गंगा-जमुनी संस्कृति की बात की जाती है वह हमेशा अपने लेखन में सामने आते हैं।” आती रही है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या सैनिक विद्रोह का मार्चिंग गीत भी उन्होंने ही लिखा था।”
फारूकी के उस गाने को पढ़ कर सुन रहे थे। उनके अंतिम दो अनुयायियों की समझ से पता चलता है कि वे सभी धर्मों के लोगों को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करते हैं—हिन्दू, मुसलमान, सिखाओ हमारा भाई-भाई प्यारा, यह आजादी का झंडा है, यह सलाम हमारा.. …यानि हिंदू, मुस्लिम औऱ सिख सब लोग भाई-भाई हैं, इस आज़ादी के झंडे को हमारा सलाम।”
इतिहासकार और लेखक सैय्यद उबैदुर रहमान के अनुयायी थे कि उसी दौर में उन्होंने अपने सिद्धांत मादरे वतन नारा में लिखा था।
वह कहते हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह बात उनकी ही लिखी है। लेकिन इस नारे को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। उनके नियमित रूप से स्वतंत्रता संग्राम को बढ़ावा देने के लिए ब्रिटिशों के खिलाफ विद्रोह का आह्वान किया गया है।” था. अज़ीमुल्ला इसी तरह के नारा थे.”
हालाँकि कुछ लोगों का कहना है कि इसका कोई सबूत नहीं है कि खान ने सबसे पहले माद्रे वतन हिंदुस्तान को नारा दिया था।
रहमान यह भी कहते हैं कि अज़ीमुल्ला खान 1857 के प्रमुख योजनाकारों में से एक थे।
विद्रोह के दमन के बाद अज़ीमुल्ला अधिकांश समय तक जीवित नहीं रह सका। वर्ष 1859 में नेपाल के तराई इलाक़े में उनका निधन हो गया। ब्रिटिश सेना के हाथों से बच कर भागते समय वह बीमार पड़ गए थे। इतिहासकारों का मानना है कि कॉन्स्टेंट एक और जगह चले गए क्योंकि शायद उनका सही इलाज नहीं हो पाया था।
मादरे वतन के अलावा भी….
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इतिहासकार और लेखक सईद उबैदुर रहमान कहते हैं कि “मादरे वतन” के अलावा कई अन्य विद्रोही नारे भी मुस्लिम नेताओं ने ही रचे हैं।
उनका कहना था, “कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक और स्वतंत्रता सेनानी मौलाना हसरत मोहानी ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा दिया था। इसी तरह यूसुफ मेहर अली ने ‘क्विट’ या ‘भारत छोड़ो इंडिया’ का नारा दिया था। ‘साइमन गो बैक का नारा भी उन्होंने ही दिया था। इन लोगों का तो कोई नाम नहीं लेता।”
रहमान के अनुसार, वर्ष 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हो या फिर वर्ष 1910 से 1947 तक का दौर, इस पूरे समय के दौरान हिंदू, मुस्लिम और सिख सभी कंधे से कंधा मिला कर लड़ाई की थी।
उनका कहना था कि क्या पता है कि कितने मुस्लिम राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर हैं? अबुल कलाम आज़ाद का नाम तो सभी जानते हैं। लेकिन ये बात कितने लोगों को पता है कि कुल आठ मुस्लिम कांग्रेस के अध्यक्ष थे.
‘भारत माता’ का नारा कहां से आया
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हिंदुत्ववादी संगठन ‘भारत माता की जय’ को राजनीतिक और राष्ट्रभक्ति के नारे के तौर पर प्रमुखता से प्रचारित करते हैं, उनका उल्लेख वर्ष 1866 से पहले नहीं किया गया था।
हिंदुत्ववादी राजनीति पर शोध करने वाले स्निग्धेंदु भट्टाचार्य कहते हैं, “बंगाल में वर्ष 1866 में कृष्ण द्वैपायन व्यास के नाम से प्रसिद्ध भूदेव मुखोपाध्याय की पुस्तक उन्नीसवां पुराण में भारत माता का उल्लेख किया गया था। अगले वर्ष ही हिंदी फिल्म के उद्घाटन के मौके पर “द्विजेंद्र नाथ ठाकुर ने अपनी लिखी मलिन मुखचंद्र, मां भारत तोमारी गीत की रचना की थी। इस गीत का उपयोग 1873 में किरण चंद्र बंदोपाध्याय रचित नाटक भारत माता में भी किया गया था।”
स्निग्धेंदु का कहना था, “हालांकि यह पता नहीं चला कि उस समय बंगाल में भारत माता की जय लोकप्रिय थी या नहीं। इसका कारण यह है कि तब तक बंकिमचंद्र की लिखी वंदे मातरम काफी लोकप्रिय हो गई थी।”
वह वर्ष 1860 से पहले बंगाल या भारत में शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं, भारत माता का कोई जिक्र या दर्शन को नहीं। ऐसे में अजीमुल्ला खान ने मादरे वतन हिंदुस्तान जिंदाबाद का नारा दिया था तो इसी महाद्वीप पर एक शब्द का जिक्र किया जा सकता है।
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने वर्ष 1905 में भारत माता की पहली तस्वीर बनवाई थी।
इसकी व्याख्या करते हुए कहा गया है, “दरअसल भारत माता की जय और मादरे वतन हिंदुस्तान एक होने के बावजूद हिंदुत्ववादियों के बीच अलग-अलग तरह के मतभेद हैं। भारतीय राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी राष्ट्रवाद, नैतिकता का जन्म उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में इसी बंगाल में हुआ है।” ऐसा हुआ था। इसके कुछ समय बाद अन्य इलैक़ों में भारतीय राष्ट्रवाद, हिंदू राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय राष्ट्रवाद को उजागर किया गया और फैलाया गया।”
उनका कहना था कि जिस तरह अवनींद्रनाथ ठाकुर ने भारत माता के चित्र बनाए थे, उनका नाम पहले बंगमाता था, उसी तरह बंकिम चंद्र चटर्जी की रचना वंदेमातरम् भी बंगमाता की ही वंदना है। बाद में कांग्रेस ने अन्य राष्ट्रीय राष्ट्रीय समर्थकों को भारतीय राष्ट्रीयता में मिलाने का प्रयास किया।
स्निग्धेंडु कहते हैं, “भारतीय राष्ट्रवादी भारत और हिंदुस्तान दोनों का उपयोग किया जाता है क्योंकि ये सभी देशों, धर्मों, समुद्रों और संस्कृतियों की भूमि हैं। लेकिन हिंदू राष्ट्रवादी ‘हिंदुस्तान’ शब्द का सही ढंग से उपयोग नहीं किया जाता है। उनकी बातचीत अरबी या फ़ारसी के लिए कोई स्थान नहीं है। इसी कारण से उनके लिए माद्रे वतन हिंदुस्तान और भारत माता एक नहीं हैं। हालाँकि, ‘माद्रे वतन हिंदुस्तान’ के शब्द पर आंतकवादी इस आरोप का खंडन करते हैं कि मुस्लिम भारत को माँ नहीं कहना चाहते।”
इस्लामिक विद्वान मोहम्मद कमरूज्जमां का कहना है कि हदीस देश में विशेष रूप से प्यार करने की बात कही गई है।
कमरुज्जमां की एक राजनीतिक पहचान भी है. वो अखिल बंगाल अल्पसंख्यक युवा महासंघ के प्रमुख हैं। लेकिन उनकी पढ़ाई कोलकाता के पूर्व आलिया मदरसा (अब आलिया विश्वविद्यालय) से हुई है।
वह कहते हैं, “हदीस में हुब्बुल वतन का ज़िक्र तो किया ही गया है। पूरी आयत हुब्बुल वतन का मीनल ईमान है। वतन का अर्थ है आज़मीन और हुब्बुल का अर्थ है प्रेम। यानी इबादत के प्रति प्रेम, यह धर्म का एक हिस्सा है।” “
लेकिन उनकी माता ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भारत के जय नारे का अब राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है।
विशेषज्ञ का कहना है कि गुड़िया को इस नारे पर साज़िशें दी जाती हैं क्योंकि अहिंसावादी इस नारे का राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
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