बीजेपी ने उत्तराखंड को क्या समान नागरिक संहिता की प्रयोगशाला बना दिया है?- बीबीसी की सिरीज़ ‘दरार’ – BBC News हिंदी
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लोकसभा के चुनावी माहौल में बढ़ते सामाजिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण पर बीबीसी की ख़ास सिरीज़- ‘दरार’ की नई कड़ी में आज बात समान नागरिक संहिता की.
मार्च में लोकसभा चुनाव की घोषणा होने से ठीक एक महीने पहले 7 फरवरी, 2024 को उत्तराखंड की विधानसभा में एक ऐतिहासिक फ़ैसला हुआ.
अपने नागरिकों के लिए ‘समान नागरिक संहिता’ लागू करने वाला उत्तराखंड भारत का पहला राज्य बन गया.
13 मार्च को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद यह क़ानून लागू हो गया.
‘समान नागरिक संहिता’ को लेकर चर्चाओं का दौर आज़ादी के बाद बनी संविधान सभा से ही शुरू हो गया था.
विभिन्न धर्मों, पंथों, जातियों, जनजातियों वाले इस देश में विवाह, उत्तराधिकार, तलाक़ और परिवार में महिलाओं के अधिकारों के संबंध में प्रत्येक समूह के अपने रीति-रिवाज और परंपराएं रही हैं. व्यक्ति-समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान भी इससे जुड़ी होती है.
लेकिन आज़ादी के बाद भारत एक नए देश के तौर पर उभर रहा था, जिसमें संविधान के मुताबिक शासन चलना था. तब ज़रूरत महसूस की गई कि सभी के लिए एक समान नागरिक संहिता होनी चाहिए.
उत्तराखंड को ही क्यों चुना गया?
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डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और दूसरे सभी विशेषज्ञ सदस्यों ने इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की थी.
ऐसे क़ानून की ज़रूरत महसूस की गई लेकिन यह भी माना गया कि इसे तुरंत लागू नहीं करना है, बल्कि आने वाले समय में इसको लागू करने के लिए दिशा निर्देश बनाए गए.
लेकिन आज तक यह क़ानून लागू नहीं हो सका है. बहुसंख्यक हों या अल्पसंख्यक, दोनों तरफ़ के लोगों को इस क़ानून की अवधारणा को लेकर संदेह रहा और इसको लेकर सहमति नहीं बन सकी.
पहले का जनसंघ हो या आज की बीजेपी, इन्होंने शुरू से ही ‘समान नागरिक क़ानून’ लागू करने का इरादा जताया था. लेकिन दूसरी बार बहुमत हासिल करने के बाद भी बीजेपी की सरकार में ये बिल संसद में नहीं आ पाया.
2022 से बीजेपी शासित उत्तराखंड में ‘समान नागरिक संहिता’ की चर्चा शुरू हुई और 2024 तक यह क़ानून के तौर पर लागू हो गया.
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि जब इस क़ानून को लेकर पूरे देश में आम सहमति नहीं है, इसे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ माना जा रहा है तो इस क़ानून को लागू करने के लिए सबसे पहले उत्तराखंड को ही क्यों चुना गया?
दरअसल इसे समझने के लिए पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड में सांप्रदायिक तनाव और उसके बाद हुए ध्रुवीकरण एवं सियासी समीकरणों को भी समझना होगा.
इसे समझने के लिए हमने उत्तराखंड की यात्रा की.
‘देवभूमि’ में क्यों धार्मिक तनाव?
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उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है. गंगा के तट पर हरिद्वार, ऋषिकेश और हिमालय की चोटियों में चारधाम तीर्थ हैं.
साल 2000 में बने इस राज्य में सांप्रदायिक तनाव का कोई इतिहास नहीं है, न तो गढ़वाल और कुमाऊं के पर्वतीय इलाके में और न ही तराई के मैदानी इलाकों में.
लेकिन पिछले कुछ सालों में यह इतिहास बदल गया है. यहां एक के बाद एक हिंदू-मुस्लिम तनाव और धार्मिक संघर्ष की कई घटनाएं हुईं.
ऐसी ही एक घटना पुरोला गांव में पिछले साल मई में हुई और यह राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में रही.
पुरोला गढ़वाल क्षेत्र में उत्तरकाशी ज़िले का एक गांव है. यह राजधानी देहरादून से लगभग 150 कि.मी. दूर है. यह किसी भी आम पहाड़ी गांव की तरह शांत दिखता है. स्थानीय लोगों के अलावा किसी भी बाहरी व्यक्ति की दिलचस्पी के लिए इस गांव में कुछ ख़ास नहीं है.
लेकिन जिस किसी श्रद्धालु ने अपने चारधाम की यात्रा के दौरान यमुना के उद्गम स्थल यमुनोत्री की यात्रा की हो, या ‘हर की दून’ की यात्रा करने वाला व्यक्ति, इस गांव से होकर गुज़रा होगा.
यह शांत दिखने वाला गांव पिछले साल मई में अचानक से सुर्ख़ियों में तब आया, जब कथित ”लव जिहाद” के आरोप में यहां के स्थानीय मुसलमानों को गांव छोड़ने का अल्टीमेटम दिया गया.
दरअसल, यहां एक स्थानीय लड़की और दो युवकों के बीच किसी बात पर बहस हुई. इस बहस में दोनों तरफ़ के लोग जमा हो गए और माहौल में तनाव पसर गया. हिंदुत्ववादी संगठनों ने आरोप लगाना शुरू कर दिया- ”यहां लव जिहाद हो रहा है.”
मुस्लिमों की दुकानों की निशानदेही
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इससे पहले ही उत्तराखंड में कथित लव जिहाद के आरोप लगाए गए थे.
इन आरोपों ने स्थानीय के अलावा बाहरी संगठनों को भी सक्रिय कर दिया था. स्थिति को भांपते हुए प्रशासन ने बड़ी संख्या में गांव में पुलिस तैनात की.
बहरहाल इस घटना में, स्थानीय मुसलमानों को गांव छोड़ने का अल्टीमेटम दिया गया. अल्टीमेटम भरे पोस्टर गांव में लगाए गए. मुस्लिमों की दुकानों को काले रंग के क्रॉस से चिह्नित किया गया.
इसके बाद हिंदुत्ववादी संगठनों ने यहां ‘धर्मसंसद’ आयोजित करने का एलान किया है. इससे भी तनाव बढ़ा.
गांव में आम लोगों के जन जीवन को पटरी पर आने में काफी समय लगा. लेकिन फिर भी ये नहीं कहा जा सकता कि सब कुछ पहले जैसा हो गया है. करीब दस महीने बाद भी गांव में तनाव दिखता है. व्यस्त बाज़ार, चौराहों और सड़कों पर पुलिस की तैनाती आज भी दिखती है.
तनाव के बीच किसी अनहोनी की आशंका के चलते लगभग 30 मुस्लिम परिवारों ने स्थायी रूप से गांव छोड़ दिया है. उनके घर और दुकानें अब बंद हैं.
हालांकि आज भी पुरोला में कुछ मुस्लिम परिवार रह रहे हैं लेकिन जो गांव छोड़ कर जा चुके हैं, उनकी वापसी की संभावना नहीं दिखती.
जिन मुसलमानों ने गांव नहीं छोड़ा
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पुरोला गांव में जो मुसलमान बचे हैं, उनमें हैं सैफ़ अली सलमान. सैफ़ यहां शहर के मध्य में एक कटिंग सैलून चलाते हैं.
सैफ़ के माता-पिता 1983 में यहां आए थे. यह उन परिवारों में से एक है जो दशकों से यहां बसे हुए हैं. सैफ़ का जन्म भी यहीं हुआ था.
कई दिनों तक उनकी दुकान बंद रही. लेकिन तनाव के बाद भी सैफ़ और उनकी मां संजीदा गांव में ही रहे. उनके पास कोई दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है.
सैफ़ और उनकी मां दोनों अपने दो कमरों के छोटे से घर में बैठकर हमसे बातें करते हैं. पड़ोस में एक ऐसा ही मुस्लिम परिवार रहता था. लेकिन इन दोनों परिवारों को नहीं पता कि वे कब तक इस गांव में रह सकते हैं.
सैफ़ की मां संजीदा ने नम आंखों के साथ बताया, “यह मुश्किल है. बहुत मुश्किल है. अब यहां पहले जैसा कभी नहीं होगा. दो-चार मुस्लिम परिवार बचे हैं. वे भी चले जाएंगे. पहले हम एक साथ प्रार्थना करते थे, नमाज़ पढ़ते थे. अब वे हमें नमाज़ पढ़ने की अनुमति नहीं देते हैं. फिर कैसे यहां मुस्लिम रहेंगे. जीने और काम धंधे के लिए कुछ करना होगा, है ना?”
संजीदा जब हमसे यह सब बता रही थीं, तब रमज़ान का महीना चल रहा था.
पुरोला मामले में पुलिस ने एक हिंदू और एक मुस्लिम युवक को गिरफ़्तार किया है. लेकिन कथित लव जिहाद का आरोप साबित नहीं हो पाया. इस मामले ने ना केवल पुरोला बल्कि राज्य के सामाजिक ताने बाने को बिगाड़ कर रख दिया.
कथित लव जिहाद के आरोपों पर सैफ़ ने बताया, “इसके बारे में सुना है. टीवी पर भी देखा था कि लव जिहाद नाम की कोई चीज़ होती है. इसका मतलब है कि एक मुस्लिम लड़का एक लड़की का अपहरण करता है और उसका धर्मांतरण कराकर मुस्लिम बनाता है. ऐसी कोई बात नहीं है. अगर कोई प्यार में होता है, तो उसके मन में धर्म के बारे में कोई विचार नहीं होता है. कोई भी धर्म नफ़रत या दुश्मनी नहीं सिखाता.”
वो परिवार जो अब लौटना नहीं चाहते
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सैफ़ का परिवार गांव में रुक तो गया लेकिन गांव से बाहर निकले लोग अब वहां लौटना नहीं चाहते हैं.
देहरादून के पास एक गांव में हमारी मुलाकात ऐसे मुस्लिमों से होती है, जो पिछले साल तक पुरोला के वासी थे.
अपनी पहचान ज़ाहिर नहीं करने की शर्त पर एक शख़्स ने बताया, “मैं अब यह सब भूलने की कोशिश कर रहा हूं. मैं इसे दोबारा नहीं जीना चाहता. कोई भी हमारे बचाव में नहीं आया. मैंने एक नया जीवन शुरू किया है और उस पुरानी जगह पर कभी वापस नहीं जाऊंगा,”
वह उदास होकर हमें बताते हैं कि पुरोला में उनकी कपड़े की दुकान थी और 45 साल से परिवार वहां रह रहा था. लेकिन लगातार मिलने वाली धमकियों के चलते उन्होंने परिवार के साथ गांव छोड़ दिया. वे बताते हैं कि उन्होंने दुकान और मकान, दोनों बेच दिए.
पुरोला के मामले में हिंदुत्ववादी संगठन ‘देवभूमि रक्षा अभियान’ सबसे सक्रिय था. पिछले कुछ समय से यहां आंदोलन आक्रामक होता जा रहा है और ऐसा लगता है कि मुस्लिम समुदाय उनके निशाने पर हैं.
इस अभियान के प्रमुख स्वामी दर्शन भारती हैं, जो अपने विवादित बयानों से सुर्ख़ियां बटोरते रहते हैं.
उन्होंने पुरोला में महापंचायत कराने का एलान किया था और इससे भी तनाव बढ़ा था. हालांकि स्थानीय पुलिस ने उन्हें देहारदून में नज़रबंद रखा और पुरोला नहीं जाने दिया.
हरिद्वार में हमारी मुलाकात दर्शन भारती से हुई. वे बिना किसी झिझक के कहते हैं, “हम ही थे जिन्होंने मुसलमानों को पुरोला से भगाया था. क्या इसमें कोई संदेह है?”
मुसलमानों के ख़िलाफ़ उनके विरोध प्रदर्शनों में कभी ‘लव जिहाद’ तो कभी ‘लैंड जिहाद’ का मुद्दा रहता है.
उन्होंने अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल पर खुद को ‘कट्टर हिंदू’ के तौर पर पेश किया है. सरकार और बीजेपी नेताओं से उनकी नज़दीकियां भी चर्चा में हैं.
इन विरोध प्रदर्शनों की वजह पूछे जाने पर दर्शन भारती कहते हैं, “जो मुसलमान बाहर से बड़ी संख्या में यहां आ रहे हैं, उन्हें इस इलाके की धार्मिक संस्कृति और परंपराओं के बारे में कुछ भी पता नहीं है. लेकिन वे यहां आकर धार्मिक हमले कर रहे हैं. जैसे कि वे हमारे मंदिरों में प्रवेश करते हैं, लव जिहाद की कोशिश करते हैं. हमारी बेटियों का अपहरण करते हैं. हम नहीं चाहते कि ऐसे लोग यहां आएं और उत्तराखंड की प्राचीन सनातन धर्म संस्कृति को नुकसान पहुंचाएं.”
आक्रामकता से हलचल
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उत्तराखंड में पिछले कुछ वर्षों से ऐसे आंदोलनों और हिंदुत्ववादी संगठनों की आक्रामकता से हलचल मची हुई है. यहाँ एक और शब्द है जो इन संगठनों के आरोपों में सुना जाता है, वह है ”लैंड जिहाद या मज़ार जिहाद.”
हिंदुत्ववादी संगठनों का दावा है कि मुस्लिम समुदाय खाली पड़ी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर रहा है. इससे तनाव की कई घटनाएं पैदा हुईं. हाल ही में हल्द्वानी ज़िले में हुई बनभूलपुरा घटना की चर्चा पूरे देश में हुई.
वरिष्ठ पत्रकार एसएमए काज़मी ने बताया, “ये सभी बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के मन में मुसलमानों के प्रति डर पैदा करने के राजनीतिक प्रयास हैं. सरकार ने बाहर से यहां आने वालों के लिए समिति और एक आयोग बनाया है. उसकी जांच में कुछ भी साबित नहीं हुआ है.”
काज़मी उत्तर प्रदेश, फिर उत्तरांचल और आज के उत्तराखंड में कई वर्षों तक पत्रकारिता कर रहे हैं. वह ‘द ट्रिब्यून’ के संपादक भी रहे. पिछले दिनों हुई ऐसी घटनाओं से वे चिंतित हैं.
अपनी चिंता ज़ाहिर करते हुए उन्होंने कहा, “मुस्लिम समुदाय को आक्रामक तरीके से निशाना बनाया गया. तथाकथित लव जिहाद की शुरुआत पुरोला से हुई. फिर इसे लैंड जिहाद कहा जाने लगा. यहां अतिक्रमण के नाम पर करीब 350 मज़ार और छोटी मस्जिदें तोड़ दी गईं. बीजेपी नेता और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी इसे एक बड़ी उपलब्धि बता रहे हैं और कह रहे हैं कि देखिए, हम देवभूमि को ऐसी बुराइयों से छुटकारा दिला रहे हैं.”
इन सबसे राज्य में ऐसा ध्रुवीकरण की स्थिति बन गई है.
उत्तराखंड एक हिंदू बहुल राज्य है और 2011 की जनगणना के मुताबिक़, लगभग 13 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है.
बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक जैसे ध्रुवीकरण के बाद जो राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं, वही यहां विधानसभा चुनाव के बाद से देखने को मिला है.
एसएमए काज़मी बताते हैं, “बीजेपी को इससे फ़ायदा हुआ है. उन्होंने 2014 और 2019 दोनों में यहां सभी पांच लोकसभा सीटें जीतीं. 2017 में उन्होंने विधानसभा में 57 सीटें जीतीं और बहुमत हासिल किया. फिर उन्होंने पिछले साल तीन मुख्यमंत्री बदले. मुख्यमंत्री को इस तरह बदलना बताता है कि सबकुछ ठीक नहीं है लेकिन 2022 के चुनाव में वे फिर से सत्ता में लौट आए.”
काज़मी बताते हैं, “उन्होंने धार्मिक भावनाओं के आधार पर प्रचार करके चुनाव जीता. 2000 में उत्तराखंड के निर्माण के बाद से, बीजेपी और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आती रहीं. लेकिन उन्होंने अपने अभियान से इस प्रवृत्ति को बदल दिया.”
‘समान नागरिक संहिता’ का प्रवेश और विवाद
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धार्मिक तनाव की इन घटनाओं और उससे उपजे माहौल के मद्देनज़र, उत्तराखंड ने ‘समान नागरिक संहिता’ लागू की. यानी एक ऐसा विवादास्पद क़ानून जिसने भारतीय समाज को दो ध्रुवों में विभाजित किया है.
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश जुयाल कहते हैं, “आपने कहा कि हम समान नागरिक संहिता लागू कर रहे हैं. इस क़ानून के लागू होने से पूरे देश में यह संदेश गया है कि अब आपकी खैर नहीं.”
‘समान नागरिक संहिता’ शुरू से ही बीजेपी के चुनावी घोषणापत्र में शामिल रहा है. लेकिन यह अभी तक संसद में चर्चा के लिए नहीं आया है.
हालांकि उत्तराखंड की बीजेपी सरकार ने 2022 से इस दिशा में क़दम उठाना शुरू कर दिया था.
2022 में राज्य सरकार ने न्यायमूर्ति रंजना देसाई की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की. समिति को मसौदा तैयार करने में दो साल लग गए.
फिर अचानक, इस साल लोकसभा चुनाव से पहले 7 फरवरी, 2024 को उत्तराखंड विधानसभा ने ‘समान नागरिक संहिता’ को पारित कर दिया.
13 मार्च को राष्ट्रपति ने इस पर हस्ताक्षर किए.
इसके साथ ही आज़ादी के बाद यह क़ानून लागू करने वाला उत्तराखंड पहला राज्य बन गया. हालांकि गोवा में भी ‘समान नागरिक संहिता’ है, लेकिन यह स्वतंत्रता-पूर्व पुर्तगाली काल से चली आ रही है.
उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता- क्या हैं अहम बातें
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‘समान नागरिक संहिता’ उत्तराखंड, 2024 क़ानून केवल विवाह, तलाक़, उत्तराधिकार, लिव इन रिलेशनशिप से संबंधित है.
इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह उत्तराखंड और राज्य के बाहर रहने वाले उत्तराखंडी निवासियों पर लागू होगा, चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों.
साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि अनुसूचित जनजाति के लोग इस विधेयक के दायरे से बाहर होंगे. ऐसे में एक सवाल यह भी है कि अगर क़ानून सभी नागरिकों के लिए एकसमान रूप में लागू किया जा रहा है तो अनुसूचित जनजाति को इसके दायरे से बाहर क्यों रखा गया है?
इस क़ानून के मुताबिक़, विवाह केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच ही हो सकता है. यानी इस क़ानून में शादी और तलाक़ पर भी प्रावधान शामिल हैं.
इसके मुताबिक, ‘अगर पति-पत्नी के बीच कोई विवाद है तो वे इसके लिए कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा सकते हैं. इसका समाधान क़ानून के मुताबिक किया जाएगा. आपसी सहमति से तलाक़ लेने के लिए भी कोर्ट जाना पड़ेगा.’
इस क़ानून के तहत पहली बार लिव-इन रिलेशनशिप पर शिकंजा कसने की तैयारी है.
अब लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं या रहने की तैयारी कर रहे हैं तो उन्हें इसकी जानकारी ज़िला रजिस्ट्रार को देनी होगी.
क़ानून का विरोध क्यों हो रहा है?
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स्वाभाविक रूप से समान नागरिक संहिता का जो लोग विरोध कर रहे हैं, उनमें मुस्लिम संगठन सबसे आगे हैं. उनका सवाल है कि जब देश में सभी धर्मों के अपने रीति-रिवाजों के हिसाब से अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं तो यह क़ानून बिना आम सहमति के क्यों बनाया गया?
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी इस क़ानून का विरोध कर रहा है और अन्य सामाजिक संगठन भी सवाल पूछ रहे हैं.
जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के प्रवक्ता मुहम्मद शाह नज़र कहते हैं, “यूसीसी का मसौदा तैयार करते समय ही दो लाख 16 हज़ार आपत्तियां दर्ज हुई थीं. वह केवल मुसलमानों ने दर्ज नहीं की थीं, बल्कि उनमें ईसाई, जैन, बौद्ध और दलित बड़े पैमाने पर शामिल थे. उन आपत्तियों में 90 प्रतिशत आपत्तियों में यही कहा गया था कि उत्तराखंड में इस क़ानून की कोई ज़रूरत नहीं है.”
उत्तराखंड में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष करन महारा कहते हैं, “‘समान नागरिक संहिता’ केवल हिंदू और मुस्लिमों के लिए है? क्या इससे दूसरे समुदाय के लोग प्रभावित नहीं होंगे? जब आप समान क़ानून की बात करते हैं तो आदिवासियों को क्यों इसके दायरे से बाहर रखा गया है? इससे तो आप क़ानून की आत्मा को ही ख़त्म कर रहे हैं.”
दूसरी ओर, बीजेपी समान नागरिक संहिता क़ानून को अपने चुनावी अभियान का हिस्सा बना चुकी है. चुनावी रैलियों में पार्टी के नेता इस क़ानून का ज़िक्र करते हैं. इसे चुनावी संकल्प पत्र में भी प्राथमिकता दी गई है.
बीजेपी का दावा- मुस्लिम महिलाओं को होगा फ़ायदा
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मुस्लिम समुदाय के विरोध के बावजूद बीजेपी दावा कर रही है कि इस क़ानून से मुस्लिम महिलाओं को फ़ायदा होगा.
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और हरिद्वार से बीजेपी के लोकसभा उम्मीदवार त्रिवेन्द्र सिंह रावत कहते हैं, ‘जो लोग इस क़ानून का विरोध कर रहे हैं, वे मुसलमानों की असल समस्याओं को नहीं जानते हैं.’
अपने चुनावी अभियान के दौरान रावत ने कहा, “उत्तराखंड से अच्छी शुरुआत हुई है. सबको इसका स्वागत करना चाहिए. जिन मुस्लिम महिलाओं की कम उम्र में 10 साल या 12 साल में शादी हो गई होगी, वे इस क़ानून के ज़रिए शादी से मुक्त हो सकती हैं. मेरा मानना है कि इस क़ानून के ज़रिए मुस्लिम महिलाओं को हलाला से सुरक्षित रखा जा सकता है.”
लेकिन कई विद्वानों को बीजेपी का यह तर्क और मुस्लिम महिलाओं के प्रति लगाव ग़लत लगता है.
सामाजिक मुद्दों और क़ानून की विद्वान प्रो. समीना दलवई को लगता है कि मुस्लिम महिलाओं की ओर से ऐसी मांग आनी चाहिए. इसके लिए जागरूकता और शिक्षा का काम करना होगा, लेकिन क़ानून थोपने से ऐसा नहीं होगा.
प्रोफेसर समीना दलवई कहती हैं, “जब शाहीन बाग़ में मुस्लिम महिलाएं सीएए का विरोध कर रही थीं, तब उन्हें वो ख़तरनाक लग रही थीं. लेकिन फिर अचानक उन्हें एहसास होता है कि अब हम मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से, चार शादियों से बचाने जा रहे हैं. वे खुद को बचा लेंगी. आपको उन्हें बचाने की ज़रूरत नहीं है.”
क़ानून और विभाजन रेखा
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सवाल सिर्फ़ इस एक क़ानून का नहीं है. ‘यूसीसी’ के आगमन से कुछ समय पहले उत्तराखंड में धर्मांतरण विरोधी क़ानूनों में बड़े बदलाव हुए थे.
यह क़ानून उससे पहले से ही अस्तित्व में था. लेकिन इसके प्रावधानों को और सख़्त कर दिया गया.
सवाल सिर्फ़ उत्तराखंड का नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में, कई क़ानूनों के मसौदे बने हैं, चर्चा हुई हैं और कइयों को बिना आम सहमति के या फिर बिना बहस के पारित किया गया है.
उनमें से कुछ कानूनों का प्रभाव दूरगामी है. उनमें से कुछ मौलिक व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानी जाने वाली चीज़ों से संबंधित थे. इन क़ानूनों में भोजन से लेकर जीवन साथी चयन तक के पहलू शामिल थे.
कुछ कानूनों के प्रावधानों पर भी संदेह जताया गया क्योंकि वे धर्म या धार्मिक मान्यताओं से संबंधित थे. ऐसे कुछ क़ानूनों का संक्षेप में उल्लेख किया जा सकता है.
1. नए आपराधिक क़ानून
दिसंबर 2023 में केंद्र सरकार ने अपराध से संबंधित तीन बुनियादी क़ानूनों में संशोधन किया. ये क़ानून देश में पिछले 150 साल से मौजूद थे लेकिन अब नई भारतीय न्याय संहिता अस्तित्व में आई है. इसके कुछ प्रावधानों पर विपक्षी दलों या विशेषज्ञों ने सवाल उठाए हैं.
2. भोजन की पसंद का अधिकार
कम से कम पांच बीजेपी शासित राज्यों ने गोवध और गाय को लाने- ले जाने पर प्रतिबंध लगाने वाले नए क़ानून या संशोधन बनाए हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने हलाल सर्टिफ़िकेशन वाले खाद्य पदार्थों पर प्रतिबंध लगा दिया है.
3. इंटरनेट और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध
2021 में केंद्र सरकार ने 2021 इंटरमीडियरी क़ानून पारित किया. कुछ प्रावधानों में सोशल मीडिया पर जानकारी साझा करने पर सख्त प्रतिबंध शामिल थे. फिलहाल इन नियमों पर कोर्ट का स्टे लगा हुआ है.
4. विवाह और तलाक़
2017 के बाद से कम से कम सात राज्यों ने या तो धर्मांतरण विरोधी कानूनों को कड़ा कर दिया है या विवाह से संबंधित नए क़ानून पेश किए हैं. उत्तराखंड के ‘यूसीसी’ में विवाह और तलाक़ से संबंधित प्रावधान हैं.
5. नागरिकता संशोधन क़ानून
2019 में केंद्र सरकार के लाए गए सीएए अधिनियम ने पूरे देश में विवाद पैदा कर दिया. बड़े विरोध प्रदर्शन हुए. धर्म के आधार पर प्रावधान का विरोध हुआ. हाल ही में सरकार ने इस क़ानून के संबंध में नोटिफिकेशन जारी किया है.
बीजेपी का क्या कहना है
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नए क़ानून हों या पुराने कानूनों में नए प्रावधान, उनका सामाजिक प्रभाव और चुनाव सहित उनका राजनीतिक प्रभाव चर्चा का विषय हैं.
कुछ पर्यवेक्षकों के मुताबिक, क़ानून बनाने या उनमें संशोधन करने की सरकार की शक्ति का उपयोग विशिष्ट उद्देश्यों के लिए हो रहा है.
एसएमए काज़मी कहते हैं, “ऐसा लगता है कि इसकी शुरुआत बीजेपी शासित राज्यों, विशेषकर गुजरात में हुई है. गोहत्या और गोरक्षा के संबंध में क़ानून लाए गए थे. वास्तव में, ऐसे क़ानून पहले से ही मौजूद थे. लेकिन फिर भी उन्हें कड़ा कर दिया गया और एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ इनका इस्तेमाल हथियार की तरह किया गया.”
लेकिन बीजेपी नेता और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत इस बात से सहमत नहीं हैं और उनके मुताबिक कोई भी सुधार कड़वा होता है, समाज को इसके लिए तैयार रहना चाहिए.
रावत कहते हैं, “ऐसे कई क़ानून हैं जिन्हें सुधार क़ानून कहा जाता है. जब ये सुधार क़ानून पारित होते हैं, तो वे अकसर आम लोगों को समझ में नहीं आते हैं. उन्हें समझना होगा. जो लोग मुसलमानों को केवल मतपेटी के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं, उन्हें समुदाय और उनके विकास के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है. अगर आप सुधार करना चाहते हैं, तो आपको थोड़ा जोख़िम उठाने के लिए तैयार रहना होगा.”
आधुनिक लोकतंत्र में, सरकार को क़ानून बनाने और उसे लागू करने का अधिकार है. उस अधिकार का प्रयोग कैसे किया जाता है यह महत्वपूर्ण है. विश्व इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब इस अधिकार का इस्तेमाल विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया.
क़ानून की प्रोफ़ेसर समीना दलवई कहती हैं, “विश्व इतिहास में देखें तो पता चलेगा कि दक्षिणपंथी रुझान वाली सरकारें जब सत्ता में होती हैं तो वे मूलभूत बदलाव लाने की कोशिशें करती हैं. जब खुमैनी ईरान के शाह के उत्तराधिकारी बने, तो उन्होंने रातों-रात इस्लामी क़ानून लागू कर दिए. तब तक, वहां के मामले धर्मनिरपेक्ष थे. जब तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में आए, तो लड़कियों के स्कूल जल्द ही सुनसान हो गए. कई जगहों पर सरकारों ने क़ानूनों का इस्तेमाल समाज में बदलाव लाने के लिए किया है. हम भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं.”
धर्म, धार्मिक प्रथाओं या आधुनिक क़ानूनों का आम लोगों के दैनिक जीवन पर प्रभाव पड़ता है.
चूँकि क़ानून नागरिकों के जीवन को नियंत्रित करते हैं, इसलिए ज़रूरी है कि उनके बनने से सभी लोगों का भला हो, समाज का सामूहिक तौर पर भला हो.
लेकिन यदि वे समाज में विभाजन पैदा कर रहे हैं, संघर्ष की स्थिति बन रही है तो निश्चित तौर पर उन पहलूओं को दूर करना चाहिए. क्योंकि विभाजन का रास्ता लंबा और टिकाऊ तो नहीं ही होगा.
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