पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा बीबीसी से बोले- चुनावी प्रक्रिया को विश्वसनीय बनाना चुनाव आयोग के सामने बड़ी चुनौती – BBC News हिंदी
पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा का कहना है कि चुनावों से पहले लेवल प्लेइंग फील्ड (सबको बराबरी का मौक़ा) के उल्लंघन के आरोपों की जांच करने का इख़्तियार चुनाव आयोग को है.
साथ ही लवासा का मानना है कि चुनावों के दौरान जांच एजेंसियों को मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट के दायरे में लाना चाहिए या नहीं, ये एक बड़ा सवाल है.
उनके मुताबिक़ बड़ा सवाल ये भी है कि क्या ऐसा करने से चुनाव आयोग अपने मुख्य काम- जो की कुशल, निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव करवाना है, उससे भटक जाएगा?
लोकसभा चुनाव कुछ ही दिन दूर हैं और जहाँ राजनीतिक दल वोटरों को लुभाने में लगे हैं. वहीं सब निगाहें इलेक्शन कमीशन या चुनाव आयोग पर भी टिकी हैं क्योंकि एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाने का सारा दारोमदार चुनाव आयोग पर ही है.
इसी बीच पिछले कुछ हफ़्तों में राजनीतिक सरगर्मी तब बढ़ गई, जब पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और उसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने कथित भ्रष्टाचार के मामलों में गिरफ़्तार कर लिया.
इसी दौरान मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के बैंक खातों के फ्रीज़ किए जाने की ख़बर भी सामने आई.
इस घटनाक्रम के बात लगातार ये बात उठने लगी कि क्या चुनावों से पहले सरकार जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कर विपक्षी दलों को निशाना बना रही है? सवाल ये भी उठा कि क्या चुनाव के लिए ज़रूरी लेवल प्लेइंग फील्ड का ध्यान नहीं रखा जा रहा है.
ऐसे कई मुद्दों पर बीबीसी ने पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा से ख़ास बातचीत की.
‘चुनाव आयोग शक्ति का भंडार’
बीबीसी से अशोक लवासा ने कहा, “चुनाव आयोग के पास कोई भी ऐसी शिकायत आती है, जिसमें कोई ये आरोप लगाता है कि ये एजेंसी हमारे ख़िलाफ़ ऐसे काम कर रही ताकि हमारा चुनाव में कार्य बाधित हो तो उसके लिए मैं समझता हूँ कि इलेक्शन कमीशन को इख़्तियार है कि वो इस चीज़ की जांच करे कि वाकई ये आरोप जायज़ हैं या नहीं.”
लवासा के मुताबिक़- संविधान का आर्टिकल 324 इलेक्शन कमीशन को चुनाव करवाने और उन्हें नियंत्रित करने का पूरा इख़्तियार देता है.
वे कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट के कई ऐसे फ़ैसले हैं जिनमे कहा गया है कि चुनाव आयोग शक्ति का भंडार है. तो सुप्रीम कोर्ट का भी कहना है कि जब ऐसे मौके आते हैं तो चुनाव आयोग शक्ति और अधिकार के उस भंडार में डुबकी लगा सकता है, अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है और उस स्थिति में जो भी सही लगे वो फ़ैसला दे सकता है.”
लवासा कहते हैं कि चुनाव आयोग एक रेफ़री है और रेफ़री पहले से दी गई शक्तियों के मुताबिक़ काम करता है.
वे कहते हैं, “जो अधिकार दिए गए हैं, जो नियम क़ायदे बने हैं उनके दायरे में रेफ़री काम करता है, रेफ़री कोई नियम ईजाद नहीं करता.”
वो बोले कि सबसे ज़रूरी चीज़ ये समझना है कि हम लेवल प्लेइंग फील्ड किसे मानते हैं और उस लेवल प्लेइंग फील्ड को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी किसकी है.
लवासा ने कहा, “जितने दल और उम्मीदवार चुनावों में उतरते हैं उनकी अपनी-अपनी क्षमता है और अपने-अपने संसाधन हैं, उनका अपना एजेंडा है और अपना प्रभाव है. लेकिन चुनावों के दौरान सबको एक तरह का वातावरण मिले, उसको सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी रेगुलेटर की है. अब इसको सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग कहता है कि सब उम्मीदवारों की ख़र्चे की सीमा बराबर हो. तो चाहे आपके कितने भी संसाधन हों लेकिन जहाँ तक चुनावों का सवाल है उसके दौरान आप एक सीमा तक ही पैसा ख़र्च कर सकते हैं.”
लवासा कहते हैं कि दूसरी बात उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के व्यवहार की है और व्यवहार को रेगुलेट करने के लिए, उसे स्वीकार्य बनाने के लिए मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट को बनाया गया.
वे बोले, “ये एक अनोखी व्यवस्था है जिसे भारत में बनाया गया है. इसकी ख़ासियत ये है कि ये सभी राजनीतिक दलों की सहमति से बना हुआ कोड ऑफ़ कंडक्ट है. लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियां और अदालतें इस दायरे से बाहर हैं. तो चुनाव आयोग इन एजेंसियों को मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट या किसी और तरह से रेगुलेट नहीं करता.”
वो बोले, ”जब चुनावों का एलान होता है और संविधान ने जो चुनाव आयोग को शक्तियां दी हैं उसके तहत बहुत सारी सरकारी एजेंसियां और सरकारी तंत्र है वो इलेक्शन कमीशन के अधिकार क्षेत्र में आ जाता है. लेकिन लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियों और अदालतों से उम्मीद की जाती है कि वो क़ानून की उचित प्रक्रिया के मुताबिक़ अपना काम करेंगे और ऐसा करना जारी रखेंगे.”
लेकिन उस हालत में क्या हो जब ये आरोप लगे कि लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियां सत्ताधारी पार्टी के कहने पर अन्य पार्टियों के ख़िलाफ़ कार्रवाइयां कर रहीं है.
तो क्या लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियों को भी मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट के दायरे में लाने की ज़रूरत है?
इस सवाल के जवाब में लवासा कहते हैं, “क्या इसको संरचनात्मक तरीक़े से मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्ट के दायरे में लाना चाहिए? ये बड़ा ज़रूरी सवाल है और मैं नहीं मानता कि ऐसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें इलेक्शन कमीशन का कार्यक्षेत्र इसके ऊपर भी आ जाए कि वो सारी लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियों और अदालतों को रेगुलेट कर सके. क्या चुनाव आयोग ऐसा कर सकता है? क्या उसे ऐसा करना चाहिए? और उससे क्या इलेक्शन कमीशन का जो मुख्य कार्य यानी कुशल, निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव करवाना- क्या उससे वो भटक जाएगा या उसका फोकस ख़त्म हो जाएगा.”
चुनाव आयोग और स्वतः संज्ञान
एक तर्क बार-बार दिया जाता है कि जब तरह-तरह के आरोप लगते हैं तो क्या चुनाव आयोग को स्वतः संज्ञान लेते हुए कार्रवाई करनी चाहिए?
अशोक लवासा कहते हैं, “चुनाव आयोग स्वतः संज्ञान नहीं लेता और वो इसलिए नहीं लेता क्योंकि वो ख़ुद को इस बात के सामने नहीं रखना चाहता कि उसके ऊपर आरोप लगाया जाए कि वो चुनिंदा तौर पर स्वतः संज्ञान ले रहा है. इस बार भी अगर चुनाव आयोग के पास शिकायतें आई हैं तो उनका उत्तरदायित्व है कि उन शिकायतों पर विचार करें और फिर जो भी उनको समझ में आता है वो करें. अगर उन्हें लगता है कि ये दख़ल देना है या ज़रूरत से ज़्यादा क़ानूनी कार्रवाई है तो उन्हें हस्तक्षेप करना चाहिए. अगर उन्हें लगता है कि नहीं ये ठीक है तो उन्हें कम से कम अपनी राय लोगों के सामने रखनी चाहिए.”
जहाँ चुनाव आयोग को एक रेफ़री माना गया है, वहीं सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया में हाल में किए गए बदलावों से एक तरह की मैच फिक्सिंग कर दी गई है?
ग़ौरतलब है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों को चुनने वाली समिति में जहां पहले प्रधानमंत्री, चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया और विपक्ष के नेता होते थे, वहीं हाल ही में किए गए बदलावों के बाद चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया की जगह सरकार के कैबिनेट मंत्री को दे दी गई है.
आरोप ये है कि जिस तीन सदस्यीय समिति में प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट मंत्री होंगे उस समिति में बहुमत से वही लोग चुने जाएंगे जिन्हें वो चाहेंगे.
अशोक लवासा कहते हैं, “प्रक्रिया और परिणाम में फ़र्क़ होता है. एक ही प्रक्रिया से अलग-अलग नतीजे निकल सकते हैं. मैं नहीं समझता कि इस प्रक्रिया से जो भी नियुक्तियां होंगी वो स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए. जहाँ तक लोगों का विश्वास या प्रक्रिया की विश्वसनीयता स्थापित करने की बात है तो मेरा ये मानना है कि जितनी व्यापक आधार वाली चयन प्रक्रिया होगी उतनी उसकी स्वीकार्यता ज़्यादा होगी.”
इलेक्टोरल बॉन्ड्स का लेवल प्लेइंग फील्ड पर असर
सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड्स की योजना रद्द भले ही कर दी हो लेकिन राजनीतिक दलों को हज़ारों करोड़ों रुपये का चुनावी चंदा मिल जाने से क्या लेवल प्लेइंग फील्ड पहले से ही ख़राब नहीं हो गई?
लवासा कहते हैं, “कुछ हद तक ये बात सही है लेकिन पार्टियों के संसाधनों में इलेक्टोरल बॉन्ड्स के बिना भी फ़र्क़ हो सकता था. किसी को ज़्यादा चंदा मिलता, किसी को कम और ये तो ऐतिहासिक तथ्य है.”
वो बोले, ”इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए भी सत्ताधारी दल को ज़्यादा पैसा मिला है, ये अब ज़ाहिर हो गया है. तो ये कहना कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स की वजह से ज़्यादा पैसा आया, ये कहना न्यायोचित नहीं है. लेकिन ये बात सही है कि गोपनीयता की वजह से राजनीतिक दलों की कुल फंडिंग बढ़ी है. गोपनीयता के ख़िलाफ़ इलेक्शन कमीशन हमेशा रहा है और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने भी इसके ख़िलाफ़ अपने विचार दिए थे.”
लवासा कहते हैं कि चुनावी या राजनीतिक फंडिंग में पूरी पारदर्शिता होना बहुत ज़रूरी है.
वे कहते हैं, “साथ-साथ राजनीतिक दलों को भी सार्वजानिक इकाई के रूप में सूचना के अधिकार के क़ानून के तहत आना अनिवार्य है. एक बार जब राजनीतिक दल आरटीआई के तहत आ जाएं तो मुझे लगता है कि उनके खातों का ऑडिट भी भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक या उनकी तरफ़ से नामित लेखा परीक्षक को करना चाहिए.”
लोकसभा चुनाव से पहले क्या चुनौतियां
हमने अशोक लवासा से जानना चाहा कि आगामी लोकसभा चुनावों से पहले चुनाव आयोग के सामने क्या बड़ी चुनौतियां हैं.
उनके मुताबिक़, असली मुद्दा है कि राजनीतिक फंडिंग कैसे होनी चाहिए और दूसरा मुद्दा है कि राजनीतिक दल जो पैसा ख़र्च करते हैं चुनावों के दौरान क्या उसके ऊपर कुछ नियंत्रण होना चाहिए या नहीं.
वे कहते हैं, ”क्योंकि पार्टियों के ऊपर कोई नियंत्रण नहीं है तो वो जितना पैसा चाहें ख़र्च कर सकते हैं. इसके ऊपर लगाम लगाने की ज़रूरत है.”
लवासा कहते हैं कि चुनावों में इतनी उत्तेजना होती है कि उसको चुनाव आयोग कैसे नियंत्रित करे, ये एक बड़ी चुनौती है.
वे कहते हैं, “सार्वजनिक भाषण और सार्वजनिक संवाद में मर्यादा कैसे बनाए रखें, मुझे लगता है कि ये चुनाव आयोग के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है. निःसंदेह दूसरी चुनौती चुनाव पर होने वाले ख़र्चे की है. तीसरी बात ये है कि आप प्रक्रिया को ज़्यादा से ज़्यादा विश्वसनीय कैसे बनाते हैं. इससे मेरा मतलब ये है कि अगर लोग देखते हैं कि चुनाव आयोग उनके सामने रखी गई सभी शिकायतों का तुरंत जवाब दे रहा है, तो विश्वसनीयता बढ़ती है.”
वीवीपीएटी पर्ची गिनती की मांग
विपक्षी दलों का कहना है कि ईवीएम में वोटों की गिनती के वक़्त वीवीपीएटी मशीन में दर्ज हुई पर्चियों की 100 फ़ीसदी गिनती करवाई जाए.
साथ ही विपक्षी दलों का आरोप है कि पिछले साल भर से चुनाव आयोग ने इस विषय पर उन्हें बात तक करने के लिए नहीं बुलाया.
अशोक लवासा कहते हैं, “जहाँ तक विपक्ष की ये मांग है कि उनसे विचार विमर्श किया जाये, ये बड़ी जायज़ मांग है. जहाँ तक सौ फ़ीसदी वीवीपीएटी पर्ची की गिनती करने की बात है तो मसला सौ फ़ीसदी वीवीपीएटी पर्ची का नहीं है. मसला ये है कि आप सिस्टम में विश्वसनीयता कैसे ला सकते हैं.”
वे कहते हैं कि वक़्त-वक़्त पर अलग-अलग मांगें आई हैं लोगों की, सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया है और इलेक्शन कमीशन ने खुद ये महसूस किया है कि इस सिस्टम को कैसे सुधारें.
वे कहते हैं, “बदलाव आए हैं. पहले रैंडम एक मशीन की वोटों की गिनती वीवीपीएटी पर्ची से मिला कर की गई. फिर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पांच को मिला कर करिए. अब लोग कह रहे हैं कि 100 फ़ीसदी करें. मेरा ये मानना है कि चुनाव आयोग काफ़ी कल्पनाशील है और उसे इस मांग को करने वाले लोगों के साथ खुले दिमाग से बातचीत करनी चाहिए.”
अशोक लवासा कहते हैं कि कई लोगों ने सुझाव दिया है कि जो उम्मीदवार हार गए हैं या पिछड़ गए हैं उन्हें ये कहने का मौका दिया जाए कि उन्हें किसी ख़ास ईवीएम पर शक़ है और उनकी वीवीपीएट पर्ची आप काउंटर-चेक कीजिए
वो बोले, “ये भी एक तरीक़ा हो सकता है. तरीक़े निकाले जा सकते हैं, ज़रूरी ये है कि लोगों का भरोसा बरक़रार रहे.”
ईवीएम पर शक़
हर चुनाव से पहले ईवीएम की हेराफ़ेरी के आरोप तूल पकड़ने लगते हैं. मशीनों पर तरह-तरह के सवाल उठाए जाते हैं.
हालांकि इन आरोपों के बीच कई विधानसभा चुनावों में सरकार को हार का सामना भी करना पड़ा है. ऐसे में हमने अशोक लवासा से पूछा कि इस मामले का सच क्या है.
उन्होंने कहा, “सवाल उठाना बहुत ज़रूरी है और उठने भी चाहिए. लेकिन हमेशा शक़ होना शायद ठीक नहीं है. इम्पीरिकल सबूत ऐसे हैं जिनसे नहीं लगता कि कोई हेरफेर होता है. अब तक हजारों चुनावों में इस प्रणाली का इस्तेमाल किया गया है और ये कहने के लिए कोई विश्वसनीय सबूत नहीं है कि इस प्रक्रिया में कोई हेरफ़ेर हुआ है. इसलिए मुझे लगता है कि हमें उसी के मुताबिक़ चलना होगा. लेकिन क्या इसमें सुधार हो सकता है? मैं पहले ही कह चुका हूं कि ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो परफेक्ट हो. तो सुधार हो सकते हैं. वे सुधार क्या हैं, मुझे लगता है कि व्यापक विचार-विमर्श से सामने आ सकते हैं.”
जहां ईवीएम पर शक़ के बादल मंडराते रहते हैं. वहीं अतीत में ई-वोटिंग या इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग के प्रस्ताव पर कई बार चर्चाएं हुई हैं. लेकिन क्या भारत में ई-वोटिंग शुरू करवाना संभव है?
लवासा कहते हैं, “इस पर चुनाव आयोग में कई बार विचार विमर्श हुआ है, तकनीकी विशेषज्ञों से सलाह ली गई है लेकिन सवाल ये है कि अगर आपको टेक्नोलॉजी के ऊपर शक़ है तब ये लागू करना बहुत मुश्किल है. क्योंकि जब हम ईवीएम प्रणाली के ऊपर इतने सवाल उठाते हैं तो ये तो ई-वोटिंग है, इसका तो कम्युनिकेशन चैनल बनेगा एक. तो क्या वो सुरक्षित होगा और लोगों को आश्वस्त कर पाएगा. ये मुद्दा ज़्यादा ज़रूरी है. आख़िर में अगर ई-वोटिंग से लोगों को संतोष ही नहीं है तो वो एक समस्या है.”
चुनाव आयोग की छवि पर सवाल
चुनावों में राजनीतिक दल अक्सर चुनाव आयोग पर निशाना साधते नज़र आते हैं. विपक्षी पार्टियां आरोप लगाती हैं कि चुनाव आयोग का रुख़ सत्ताधारी पार्टी की तरफ नरम और उनकी तरफ सख़्त रहता है.
क्या इस सब से चुनाव आयोग की छवि धूमिल होती है?
अशोक लवासा कहते हैं, “जो छवि होती है वो लोग बनाते हैं. चुनाव आयोग उस पर ज़्यादा मेहनत नहीं करता कि उनकी छवि कैसी होनी चाहिए. क्योंकि ऐसा माहौल है जिसमें इतने विवाद खड़े होते हैं और सबकी अपेक्षा होती है कि एक सुपरपावर है इलेक्शन के दौरान जो हर समस्या का समाधान करेगा. ये अपेक्षा जायज़ है.”
लवास बोले, ”अदालत में चल रहे मामलों में भी, अदालत चाहे कितने भी निष्पक्ष तरीक़े से फ़ैसला करे तो आधे लोग नाराज़ हो जाते हैं और आधे लोग खुश हो जाते हैं. जिनके पक्ष में फ़ैसला होता है वो कहते हैं सब ठीक है, जिनके पक्ष में नहीं होता उनको लगता है कुछ गड़बड़ है.”
लवासा के मुताबिक़ लोगों को इस नज़रिए से देखना चाहिए कि चुनाव आयोग या किसी भी संस्था के लिए सभी लोगों को हर समय संतुष्ट करना मुमकिन नहीं हो सकता.
वे कहते हैं, “आपके सिस्टम और प्रकियाएं जितनी पारदर्शी होंगी, फिर आप जो कर रहे हैं वो लोगों को दिखेगा. इसके बावजूद सवाल हो सकते हैं. लेकिन कम से कम कोई भी आप पर कुछ भी छिपाने का आरोप नहीं लगाएगा.”
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित)
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