छत्तीसगढ़ के कांकेर में 29 माओवादियों के मारे जाने के बाद सबसे बड़ी आशंका क्या है: ग्राउंड रिपोर्ट – BBC News हिंदी
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छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित इलाके कांकेर में 26 अप्रैल को मतदान होना है।
19 अप्रैल को समुद्री तटों के लिए वोट का भुगतान किया जाना है। इस मतदान से पहले 16 अप्रैल को कांकेर जिला मुख्यालय से 160 किमी दूर आपाटोला-कलपर जंगल क्षेत्र में सुरक्षा बलों के साथ 29 माओवादियों को मार गिराया गया था।
पुलिस प्रशासन इस संगठन को एक बड़ी कार्यशैली के तौर पर पेश कर रहा है।
इस घटना के 48 घंटों के भीतर माओवादियों ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा कि “हमारे साथियों ने जंगल क्षेत्र में पनाह ली और उनके आसपास हमला कर दिया गया।”
कांकेर के पुलिस कप्तान ए कल्याणलेसेला ने बीबीसी हिंदी को बताया, “19 अप्रैल को युवा मित्र सीट पर मतदान होना था। ठीक है पहले 15 अप्रैल को हमें बड़े दस्ते के होने की पुष्टि जानकारी मिली। यह इलाक़ा और कांकेर, दोनों से वहाँ पर बहुत बड़े कैडर और कमांडर थे, 60 से 70 की संख्या में माओवादी थे। हमने इलाके को घेर लिया और गिरोह बना लिया।”
चुनाव से पहले पसरा सवाल
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माओवादियों ने जो बयान जारी किया है, उसमें शामिल है, “पुलिस के हमलों में 12 साथियों की गोली मारकर हत्या कर दी गई। “
हालांकि स्काउट कमांडर के आईजी पुलिस सुंदरराज पी ने इन लीज का खंडन करते हुए कहा, “सहानुभूति हासिल करने के लिए माओवादी इस तरह के दावे कर रहे हैं। ये उनके प्रोपेगैंडा का तरीका है।”
इस पंजीकृत गिरोह में मारे गए लोगों में शंकर राव और उनकी पत्नी रीता डिविजनल कमेटी रैंक के माओवादी थे।
शंकर पर 25 लाख रुपये का अनुदान घोषित था, जबकि रीता पर दस लाख रुपये का अनुदान था।
कांकेर में 26 अप्रैल को मतदान होना है। माओवादियों ने सबसे पहले चुनाव बहिष्कार की अपील की है। लेकिन अब चुनाव से ठीक एक दिन पहले बंद का समापन कर दिया गया है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मावादीओ) ने इस ‘कत्ल कांड’ के विरोध में 25 अप्रैल को नारायणपुर, कांकेर, मोहला-मानपुर बंदों को सफल बनाने की अपील की है।
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ऐसे में कई मायनों में सुरक्षा बल के गायब होने की झलक मिलती है।
माओवादियों के जिस तरह के बड़े नेता इस घटना में मारे गए हैं, उन्हें देखते हुए पुलिस प्रशासन को खतरा है कि इसे बदलने के लिए माओवादी हमला कर सकते हैं।
बौद्ध शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव आश्रम बाबा से हुई है जहाँ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता और सरकार के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन शुरू किया था।
वर्ष 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने माओवादी हिंसा को लेकर देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था, इसके बाद ऑपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत हुई।
वर्ष 2009 में गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने संसद में बताया कि किस देश में माओवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या 223 थी। हालाँकि मुख्य रूप से इनका प्रभावशाली देश दस राज्यों के करीब 75 जिलों में माना जाता है।
किस बात की है संकट
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कम्युनिस्ट सरकार के दौर में माओवादियों के खिलाफ़ सशस्त्र अभियान शुरू हुआ, वह दस साल से कम्युनिस्ट सरकार के दौर में भी जारी है।
फ़ोर्ट्स कमांडर के आईजी पी सुंदरराज कहते हैं, “बस्तर कमांडर में तीन महीने में पुलिस के साथ मिलकर 79 माओवादी मारे गए। अवैध हथियार भी बरामद हुए हैं। माओ अवादी स्टोर भी हो रहे हैं। उनके इकोसिस्टम पर असर पड़ा है।” ।”
माओवादी हमलों के पूर्ववर्ती मामलों को देखते हुए ये खतरा भी मंडरा रहा है कि माओवादी अपनी ताक़त का प्रदर्शन करने के लिए भी कोई हमला कर सकते हैं।
हालाँकि दूसरी ओर इस बात का खतरा यह भी है कि सुरक्षा बल के युवा माओवादियों के किसी अन्य समूह को अपना मजबूत बना लें।
यही कारण है कि सड़कों पर अंतिम सन्नाटे में भी खतरा पैदा हो गया है। 16 अप्रैल को यहां से निकला सबसे प्यारा गांव है छोटी बेठिया। उस गांव का कोई व्यक्ति किसी अनहोनी के संकट में कैमरे पर कुछ नहीं कहना चाहता।
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एक तो दिन भर की हाड़-तोड़ मेहनत करके अपना और अपने परिवार का पेट पालने की चिंता और ऊपर से दशकों तक माओवादियों और सुरक्षाबल के बीच पिस रहे इन लोगों की जिंदगी में परेशानी और अनिष्ट की संकट ही स्थिति बन गई है।
छोटे बेतिया गांव के लोगों में इस बात की राहत तो है कि इस आदमी में कोई गांव वाला मेरा नहीं है, लेकिन यह राहत कब तक रहेगी, इसका उन्हें कोई भरोसा नहीं है। ना तो केंद्रीय सुरक्षा बल और ना ही राज्य सरकार, उन्हें अमन और चैन का भरोसा दिलाया गया है।
इस इलाक़े में आम पक्के जीवन में कोई भी दिन ऐसा हो सकता है, जहाँ से परिवार टिके हो सकते हैं। ये विनाशक सिद्धांत में हो सकता है- आप घर से बाहर निकले और क्रॉस फेयरिंग की चपेट में आ जाएं, सुरक्षा बल या माओवादी, किसी की भी गोली लग सकती है या फिर मुंहबरी करने के आरोप में माओवादी आपको प्लास्टिक बना लें। या फिर माओवादियों के शक में पुलिस मार दे।
बेगुनाह परिवार का दर्द
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यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में मानवाधिकारों के दावेदारों पर आरोप लगाया गया है कि माओवाद पर कब्जे की इस लड़ाई में आम आरक्षण की जिंदगी दांव पर लगी है।
जब दांव पर जिंदगी लगी हो तो लोकतंत्र के महापर्व को लेकर भी बहुत उत्साह नहीं दिखता। लेकिन अच्छी बात यह है कि आम जनजातीय लोग अपने फ्रैंचाइज़ का इस्तेमाल करना जान चुके हैं।
19 अप्रैल को जंगलों में 68 प्रतिशत लोगों ने मतदान में हिस्सा लिया। उम्मीद है कि कांकेर में भी मतदान अच्छा होगा।
लेकिन इस लड़ाई का असर आम शेयर बाजार पर कितना पड़ रहा है?
छत्तीसगढ़ के सबसे माओवाद प्रभावित इलाके सरहद के पेवारी गांव में इराके अज़ुमाड़ का इलाका पाया जाता है। कांकेर जिला मुख्यालय से लगभग 5 किमी दूर सुदूर जंगल के बीच स्थित इस गांव में सूर्यवती हिडको का भी घर है।
बीबीसी हिंदी की टीम जब इस घर तक पहुंची तो खामोशी और उदासी भरी खबर। सूर्यवती अनिल हिडको की वयोवृद्ध माँ है।
आँगन के एक कोने में आवासीय हुई सनस्वती हिडको अपने फूल पोछ रही हैं। दो महीने पहले परिवार में नौकर वाला बेटा था, बहू थी और पोटा और पोती। लेकिन 24 फरवरी, 2024 को इन प्लांट दुनिया का उदय हुआ।
मां बताती हैं कि 28 साल का बेटा अनिल हमेशा की तरह 15 किमी दूर जंगल में तेंदू पत्तों को जलाने के लिए जंगल में चला गया था।
सूरजवती का कहना है, ”उनके अगले दिन यानी 25 फरवरी की शाम को उनके गांव के लोगों ने खबर दी कि उनके बेटे की पुलिस में हत्या हो गई है. ये गैंगस्टर मर्दा गांव के पास की पहाड़ी पर हुआ था. कोई नहीं बता रहा” “क्या हुआ, मेरा बेटा रात 11 बजे दफ़न हो गया। देर से हमें छुट्टी मिल गई और हम घर में राख नहीं पाए साहब, परिवार वाले ने भी उसकी शक्ल नहीं देखी।”
वहीं पास में ही गोद में बच्चे को लेकर अनिल की पत्नी सूसा हिडको का भी रो-रोकर बुरा हाल था। यकीनन देर के बाद उन्होंने बात करना शुरू की। उनकी चिंता यह थी कि वयोवृद्ध सास और परिवार के साथ दो छोटे बच्चों को लेकर वो बाकी की जिंदगी कैसे गुज़ारेंगी।
वे कहते हैं, “मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनके पालन-पोषण का कोई मतलब नहीं है। सास-ससुर के काम करने की कोई उम्र नहीं है। घर में सिर्फ मेरा पति था। अब बताओ मैं क्या कहता हूं। वो जंगल से बबूल का सामान चला गया।”
फ़्रेज़ी सामान का आरोप
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25 फरवरी को हुई जिस माफिया में अनिल के मारे जाने की बात कही जा रही है, उसका दावा है कि पेवारी गांव से 25 किमी दूर मरदा गांव के पास के पहाड़ में तीन साल के दौरान समाजवादी पार्टी के सुरक्षा बलों की तैनाती हुई थी। ने मारा था.
मगर पेवारी गांव के मुखिया मंगलू राम का दावा है कि अनिल उनके यहां नौकरानी की नौकरी करते थे.
घटना के बाद गांव के सभी लोगों ने कांकेर जिले के कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों को भी निर्देश दिया कि अनिल न तो माओवादी थे, न ही उनके संगठन से किसी प्रकार का कोई संपर्क हो रहा है।
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मंगलू राम का कहना था, “वो हमारे घर का आदमी था। गांव का लड़का है जो मेहनती कारीगर बनाने वाला था। रोज़गार उद्यम के तहत भी कारीगर बनता था। कार्ड भी उसका है। उसके अलावा आधार कार्ड और पैन के साथ आयुष्मान कार्ड भी है. राशन लेना भी वो ही था.”
“हर महीने राशन लेने के बाद उसी के हस्ताक्षर रजिस्टर पर और राशन कार्ड पर होते हैं। वो तो जंगल था तेंदू के लिए राशन का सामान एक समान रखने के लिए। हमेशा जंगल था। भाग गया बताया गया, गोली मार दी गई। वो जंगल वाला आदमी (माओवादी) नहीं था। मेरा प्रिय भी अनिल था।”
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फ़ोर्ट कमांडर के पुलिस महानिरीक्षक पी सुंदरराज स्वीकार करते हैं किमार युद्ध में इस बात की बहुत संभावना है कि संघर्ष के दौरान आम आदमी भी पिस जाए।
वो ये भी दावा करते हैं कि ऐसी स्थिति में इंडिपेंडेंट जांच की जाती है और सिद्धार्थ के परिवार को ‘मुआवजा भी दिया जाता है’।
उन्होंने कहा, “अगर माओवादी और सुरक्षा बल के बीच समानता है और अगर किसी ग्रामीण गांव को नुकसान होता है तो हम उस हक़ीक़त को स्वीकार करते हैं। उसका जो गठन होता है वह उसके साथियों को दिया जाता है।”
लेकिन अहम सवाल यही है कि क्या कोई मुआवज़ा सूरजवती या फिर सूरज की उजड़ी दुनिया में वापस ला सकता है। या फिर मर्दा गांव के खासपाड़ा में सोमारी बाई नेगी के परिवार की खुशियां वापस आ सकती हैं।
यह पूरा परिवार शोक में डूबा हुआ है, उनके पुत्र राठौड़ नेगी भी 25 फरवरी को हुई डकैती में मारे गए। उनके परिवार ने भी सरकारी आवेदन में आरोप लगाया है कि ये फ़्रेज़ी मॅगेर था।
कांकेर में हुई 25 किलोमीटर दूर रहने वाले ग्रामीण कैलाश कुमार और पास के घरों में रहने वाले लोगों के नारे हैं कि अगर 25 किलोमीटर दूर रहने वाले लोग थे तो किसी सुरक्षा बल के जवान को कोई झटका नहीं लगा?
गांव वालों का कहना है कि पुलिस दावा कर रही है कि एक देसी बंदूक भी बरामद हुई है लेकिन पूरे गांव में किसी के पास कोई हथियार नहीं है.
डर का माहौल क्यों है?
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कैलास महोत्सव में महीने में हुई गैंग्स के बारे में कहा जाता है, ”अगर दोनों तरफ से रिहाई हुई होती तो इसमें शामिल पुलिस का दायित्व कह रहा होता वो भी पुलिस पर हमला करते. ऐसा तो कुछ हुआ ही नहीं. हैं।”
दांते में रहने वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील से वकील बेला भाटिया ने बीबीसी हिंदी में कहा, “ऐसे मामले आए हैं जहां मजदूर हुए और कई लोग मारे गए। कुछ मामलों में दो या तीन माओवादियों की शिनाख्वाह हुई और कई ऐसे भी चल रहे हैं।” माओवाद से कुछ लेना देना नहीं था। बेगुनाह लोग जो क्रॉस लेजर में मारे गए, उनके लिए कोई माओवादी नहीं है, इसलिए डर का माहौल है।”
25 फरवरी को हुई कम्युनिस्ट पार्टी को लेकर छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी सवाल उठाए थे.
बंदूक से नहीं निकलेगा रास्ता
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इस महीने की बड़ी घटना के बाद फिर से सवाल उठे हैं कि अगर माओवादी वीरांगना पद गए और पीछे हट गए तो फिर इतनी बड़ी समुद्र तट पर वो किस तरह हमला करने वाले थे।
ये भी उठ रहे हैं सवाल क्या मारे गए माओवादियों के पास से तीन आतंकवादी हथियार कैसे बरामद हुए हैं?
इन सिक्योरिटी पर पी सुंदरराज का दावा है, “माओवादियों ने सेनाओं के ऊपर भी हमले किए हैं और पिछले सागरों में शस्त्रागार भी लूटे हैं। मेरे पास से बहुत सारे सारे हथियार एक जैसे हैं। इसके अलावा वो देसी तरीक़े से भी हथियार लूटे गए हैं।” विस्फ़ोटक भी टूट गया है। इन टुकड़ों से सुरक्षा संरचनाओं को बहुत अधिक नुकसान हुआ है।”
सुरक्षा बलों और माओवादियों के इस संघर्ष के बीच पिसने वाले स्थानीय ग्रामीण क्षेत्र को अपने भविष्य को लेकर किसी भी तरह की कोई उम्मीद नहीं दिखाई दी।
छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार के आने के बाद माओवादियों के खिलाफ़ अभियान में तेजी से गिरावट आई है, लेकिन 16 अप्रैल के बाद राज्य सरकार ने माओवादियों के साथ बातचीत की पहल की है।
राज्य के उप मुख्यमंत्री और गृह मंत्री विजय शर्मा ने कहा, “किसी भी समस्या का समाधान हिंसा से नहीं हो सकता इसलिए सरकार माओवादियों से बातचीत के लिए तैयार है।”
विजय शर्मा कहते हैं, “विकास भी बंदूक की नोक पर नहीं हो सकता इसलिए बातचीत का रास्ता अपनाना ही बेहतर होगा।”
लेकिन डेज थ्री डेक्स से जंगल के इलाक़े में मावाडो और प्रशासन पुलिस के बीच शरारत हुई है, बातचीत नहीं हुई है।
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