चॉकलेट की बढ़ती रिकॉर्ड क़ीमतों के लिए क्या जलवायु परिवर्तन ज़िम्मेदार है? – दुनिया जहान – BBC News हिंदी
छवि स्रोत, गेटी इमेजेज
चॉकलेट एक ऐसी चीज़ है जिसे सदियों से दुनिया भर में पसंद किया जा रहा है। लेकिन फरवरी 2024 में चॉकलेट की कीमतों में रिकॉर्ड उछाल आया।
चॉकलेट में इस्तेमाल होने वाले कोको की प्रति टन कीमत अमेरिका के बाजार में चॉकलेट 5874 डॉलर तक पहुंच गई। इसके बाद से कॉन्स्टेंट हल्दी जा रही है।
इस वृद्धि का कारण कोको के उत्पाद में गिरावट का खतरा है।
विश्व में होने वाले कोको का अधिकांश उत्पादन दो पश्चिमी देशों में होता है, जहां किसान जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से विकसित हो रहे हैं। वहां के मौसम में आ रहे बदलावों का कोको के उत्पादन पर बुरा असर पड़ रहा है। लेकिन उन किसानों के सामने इसके अलावा अन्य साझेदार भी हैं।
इस सप्ताह हम यही खोज करेंगे कि किस चॉकलेट उत्पाद पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है?
चॉकलेट का इतिहास
छवि स्रोत, गेटी इमेजेज
इंग्लैंड की रेडिंग यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉक्टर केटी सैमपेक चॉकलेट के इतिहास पर रिसर्च कर रही हैं।
उनका कहना है कि लगभग चार हजार साल पहले उत्तरी मैगज़ीन यानी इक्वाडोर और वेनेज़ुएला के इलाकों में कोको के पेड़ पाए गए थे। बाद में इन पेड़ों को मैक्सिको और मध्य अमेरिका में बेचा जाने लगा। कोको के पेड़ की नई किस्म उगाई गई।
”शुरू में कोको के फल के रस को फ़ेरमेंट करके खाने में इस्तेमाल किया जाता था। कारखानों को ऐसी कई प्राचीन कालीन बोतलें मिलीं जिनमें कोको के रासायनिक अंश पाए गए थे। बाद में लोगों ने इस फल के बीज का उपयोग कर खाद्य सामग्री बनाना शुरू कर दिया।”
“इसका इस्तेमाल किया गया पिरामिड और प्रार्थना स्थलों पर चढ़ावे के लिए रखा गया था। कोको के फ़ायदों के ज़िक्र के अनुसार सभ्यता के कुछ शिलालेख भी मौजूद हैं। कोको को जन्म देने की क्षमता से जोड़ कर भी देखा गया था। चौथी शताब्दी के कुछ साक्ष्य कोको के बीज का इस्तेमाल लेन डेन की मुद्रा पर भी हुआ था। बाद में अल साल्वाडोर में भी कोको बेचा जाने लगा।”
केटी सैमपेक का कहना है कि इस क्षेत्र के किसानों ने कोको की रेटिंग बढ़ाने के तरीके का इस्तेमाल किया।
जल्द ही अल साल्वाडोर एक बड़ा कोको उत्पादक क्षेत्र बन गया। वह उन इलाकों को कोको में शामिल करने लगा जहां का मौसम कोको के उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं था। सेल सदी में स्पेन की समुद्रतटें। उन्होंने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया। स्पेन के उपनिवेशवादियों ने मुद्रा के लिए भी कोको के बीज का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।
डॉक्टर केटी सैमपेक के अनुसार अल साल्वाडोर में कोको से एक ड्रिंक या जूस भी बनाया जाता था। इसे चॉकलेट कहा जाता था.
मध्य शताब्दी में स्पेन और अन्य कई देशों में चॉकलेट ड्रिंक का इस्तेमाल आम हो गया और लोग सुबह की शुरुआत चॉकलेट पीकर करने लगे। चाय का सेवन सातवीं सदी के मध्य में शुरू हुआ और कॉफी का सेवन सातवीं सदी के मध्य में अनुकरणीय हुआ लेकिन उनका पहला प्रदर्शन के साथ चॉकलेट ड्रिंक का सेवन हो शुरू हुआ था।
जिस प्रकार के वही कॉफ़ी और टी हाउस होते हैं जो लंदन में सातवीं शताब्दी के मध्य में चॉकलेट हाउस खोले गए थे। उस समय तक यूरोप में चॉकलेट और कोको का सेवन लोकप्रिय हो गया था।
यूरोप में चॉकलेट की प्यासी मांग की वजह से आए कई बदलाव। प्रारंभिक सौ साल पहले चॉकलेट उत्पाद संबंध फ़ीसले स्थानीय लोगों के हाथ में होते थे। जब स्पेन के उपनिवेशवादियों ने वहां कोको की खेती अपने हाथों में ली तो उत्पादन की संभावना कम हो गई क्योंकि कोको एक संवेदी पौधा होता है। इसकी सही मात्रा में संरचना और ताप की आवश्यकता होती है। उनके खास तौर-तरीकों से ख्याल रखते हुए जो स्थानीय लोग भलीभांति जानते थे इसलिए वो इसमें सफल सफल भी रहे थे।
डॉक्टर केटी सैमपेक का कहना है कि इसी बात की वजह से स्पैनिश लोगों ने शुरुआत में तो इसमें दख़लअंदाज़ी नहीं की, लेकिन जब कोको की मांग बढ़ी तो उन्होंने कोको के बड़े-बड़े बैग बनाना शुरू कर दिया। स्थिर प्रयोगशालाओं से काम शुरू करने लगे।
उसके बाद 1890 में पुर्तगाल के राजा को चिंता होने लगी कि ब्राजील के उपनिवेश उनके हाथ से निकल न जाए। उन्होंने ब्राज़ील और अफ़्रीका में कोको की खेती शुरू की।
18वीं सदी में अटे-आटे कोको का सबसे अधिक उत्पादन अफ़्रीका में हुआ था। आज कई देशों में कोको की खेती होती है।
डॉक्टर केटी सैमपेक का कहना है कि लातिन अमेरिका में ब्राजील, इक्वाडोर और वेनेजुएला अभी भी बड़े कोको उत्पादक देश हैं। लेकिन अब एशिया में अविश्वास, मलेशिया और भारत में भी कोको का उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है। हालाँकि कोको प्रोडक्शन में पश्चिमी अफ़्रीका का सुपरमार्केट अभी भी सदस्य है।
कोको की कठिन खेती
छवि स्रोत, गेटी इमेजेज
घाना के क्वामे एनक्रूमा यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर फिलिप एंटवी अगाये के शिक्षक दुनिया में आइवरी कोस्ट के बाद घाना दूसरा सबसे बड़ा कोको उत्पादक देश है। दुनिया में होने वाले राक्षस वाले कुल कोको का 20वीं सदी का हिस्सा घाना से आता है।
उनका कहना है कि घाना के कोको उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन का बुरा असर पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण कोको ओबेने का मौसम छोटा हो रहा है। उन्होंने कहा कि देश के उत्तरी क्षेत्र में कई किसान कहते हैं कि आज से 50 साल पहले वो फेल में कोको के उपाय शुरू कर दिए थे लेकिन अब वे मई तक इंतजार कर रहे हैं।
”घाना में विभिन्न कृषि क्षेत्र हैं। उत्तरी क्षेत्र में जहां कोको ले जाया जाता है वहां साल भर खेती का एक ही सीजन होता है और सीजन के छोटे से किसान अपना काम ठीक तरीके से नहीं कर पा रहे हैं।”
पिछले कुछ दशकों में घाना में मूसलधार बारिश और मछली जैसे कई प्राकृतिक खतरे सामने आए हैं। इसके अलावा देश में कीड़ों की वजह से भी कोको की फसल और पेड़ टूट गए हैं।
फ़िलिप एंटवी अगाये का मानना है कि इन बातों का घना की कोको और अन्य फ़सलों पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है। अनुमान है कि आने वाले में सागर में अत्यधिक भीषण सूखा पड़ेगा जिसका असर इस देश के करोड़ों किसानों की उपजीविका पर पड़ेगा। घाना में कोको के बाग सरकारी नहीं बल्कि छोटे किसान परिवारों के हैं।
एक अनुमान के अनुसार घाना में आठ लाख पैंसठ हजार किसान कोको की खेती करते हैं।
फ़िलिप एंटवी अगाये ने कहा, ”कोको ओबने वाले किसानों को सीज़न के अंत तक ड्रग्स का इंतज़ार करना पड़ रहा है। जब फ़सल बिकता है तो उस पैसे से पूरे साल का ख़र्च होता है। कोको ओबेने वाले एशिया में फ़ेफ़ ग़रीबी है। सरकार इस समस्या को चयन से ले रही है क्योंकि यह देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य स्तंभ है। सरकार इस दिशा में कई कदम उठा रही है।”
घाना का कोको उद्योग बोर्ड नियंत्रण सरकार के हाथ में है। कोको कंट्रोल बोर्ड किसानों को मुफ्त में कोको के उपकरण और भोजन उपलब्ध कराता है। किसान अपने कोको फ़सल इस बोर्ड को कानूनी रूप से आकर्षित करते हैं और बोर्ड ही इसकी कीमत भी तय करते हैं ताकि उनका शोषण हो सके।
वहीं किसान भी जलवायु परिवर्तन के नतीजों से अपनी फसल को बचाने के लिए कई कदम उठा रहे हैं। यह किसान कोको उत्पाद पर अपनी प्राथमिकता कम करने के लिए अन्य काम भी करने लगे हैं।
चॉकलेट की इंडस्ट्री
छवि स्रोत, गेटी इमेजेज
कनाडा के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सस्टेनेबल एमओडी की नीति सलाहकार स्टेफनी बरमूडेज़ के अनुसार विश्व की अर्थव्यवस्था में कोको उद्योग की बड़ी भूमिका है क्योंकि इस क्षेत्र से विशिष्ट रूप से उन्नत देशों में पांच करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है। जलवायु परिवर्तन से कोको का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है क्योंकि कई देशों में अब कोको ओबाना मुश्किल हो रहा है और कोको का उत्पादन कम हो रहा है।
”पश्चिमी अफ़सोसिका में 2018 से 2019 के बीच कोको प्रोड्क्शन में पांच महानुभाव की कमी आई है। कुछ अन्य देशों में भी कोको ओबाना मुश्किल हो रहा है जबकि कई देशों में मौसम के बदलाव के कारण कोको ओबाना अप्रभावी हो जाएगा। वेस्ट अफ़्रीका, और लातिन अमेरिका में ब्राज़ील और पेरू में यह समस्या शुरू हो गई है। वहां हल्दी गर्मी के कारण या तो कोको के उपचार मर जाते हैं या ठीक से फल नहीं दे पाते जिससे कोको की गुणवत्ता भी गिर रही है और उसकी कीमत भी प्रभावित हो रही है।”
नीदरलैंड्स, जर्मनी और अमेरिका कोको की सबसे बड़ी खरीदारी हैं।
स्टेफ़नी बरमूडेज़ ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार कोको का व्यापार 20 अरब डॉलर का है जिसमें कोको की चर्चा करके चित्रित करने वाली पाउडर और आकर्षकता शामिल है।
कुल कोको उत्पाद का निजी हिस्सा चॉकलेट उद्योग में इस्तेमाल होता है और बाजार में चॉकलेट उद्योग की कीमत 100 अरब डॉलर है। अनुमान है कि 2026 तक यह बढ़कर 189 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा।
कोको की बिक्री और खरीदारी दुनिया के कमोडिटी बाजार या सामग्री बाजार में होती है जहां इसकी कीमत मांग और चॉकलेट के अनुसार धूमिल होती है।
स्टेफ़नी बरमूडेज़ ने कहा, ”कोको के उत्पादन में गिरावट के कारण उसकी कीमत रिकॉर्ड बेसल तक पहुंच रही है। अब उसकी कीमत सात हजार डॉलर प्रति टन तक हो गई है. यानी पिछले एक साल में कोको की कीमत 163 प्रतिशत बढ़ी है।”
कोको सुगंध से चॉकलेट बनाने की प्रक्रिया में कई गुट शामिल होते हैं। कुछ गुट और अन्य जगहों पर ज्यादातर मुनाफ़ा कमाते हैं।
स्टेफ़नी बरमूडेज़ का कहना है कि कोको प्रोडक्ट का 70 प्रतिशत हिस्सा चॉकलेट बनाने वाली कंपनी की जेब में है। ये निवेशक बार-बार उस समय कोको पिज्जा खरीद कर रख लेते हैं, जब बाजार में उनकी कीमत कम होती है मगर कोको ओबने वाले किसानों को अपनी फसल की आय की तत्काल आवश्यकता होती है, इसलिए वो कीमत बढ़ने का इंतजार नहीं कर सकते।
खाद की कीमत, आर्थिक सहायता की कमी और मौसमी मौसम की वजह से किसानों की भूख जा रही है। इसका असर कोको प्रॉडक्ट पर लग रहा है। तो क्या भविष्य में चॉकलेट की मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में कोको की भूख नहीं हो सकती?
स्टेफ़नी बरमूडेज़ का मानना है, ” ऐसा हो सकता है। पहले अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों में चॉकलेट के मुख्य ग्राहक रहे हैं लेकिन अब चीन, मैक्सिको, तुर्की, इंडोनेशिया और कई एशियाई देशों में चॉकलेट की मांग बढ़ रही है। अनुमान है कि जल्द ही एशिया की चॉकलेट चॉकलेट दूसरी सबसे बड़ी बाज़ार बन जाएगी।”
उत्पादन वृद्धि की चुनौती
छवि स्रोत, गेटी इमेजेज
आईसीसीओ कोको के व्यापार से जुड़े 5 सदस्य2 देशों का संगठन है। इसका उद्देश्य इस उद्योग को सस्टेनेबल यानी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना जारी रखना है। आइवरी कोस्ट में इंटरनेशनल कोको क्रिटिकलाइजेशन यानी सीसीसीओ (आईसीसीओ) के आई प्रोजेक्ट मैनेजर नुसा अबू बकर का कहना है कि कोको ओबने वाले किसान कोको इंडस्ट्री की सबसे अहम मगर यू.
वो कहते हैं, ”हमारे सामने दो उदाहरण हैं. एक तो हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि कोको ओबेने वाले किसानों को उनकी मेहनत और फसल का दाम मिले। उद्देश्य दूसरा यह है कि कोको की सर्वोच्च प्राथमिकता स्तर पर बनी रहे।”
तो पहले इस बात पर बात करते हैं कि कोको उद्योग को किस प्रकार सस्ता बनाया जा सकता है और फ़ायदेमंद बनाया जा सकता है। किसानों की स्थिति में कैसे सुधार किया जा सकता है?
यूनुसा अबू बकर कहते हैं, ”अधिकांश किसानों को कोको के बाग़ विरासत में मिलते हैं। वो इनका प्रयोग पारंपरिक तरीकों से करते हैं और इसी तरह करते हैं जो भी मिले इसमें संतोष कर लिया जाए। हम उन्हें समझाते हैं कि कोको का उत्पादन नए तरीके से अपनाना और इसमें निवेश करना जरूरी है। साथ ही बच्चों को सही शिक्षा देना और जीवन स्तर सुधारना भी सीखना है। इसलिए हम नई पीढ़ी के ऐसे कोको किसानों को इस उद्योग की ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो इसे महज़ पारंपरिक खेती की तरह नहीं बल्कि व्यापार की तरह देखते हैं।”
कोको की गुणवत्ता को मजबूत करने के लिए कई चॉकलेट भी किसानों को नई तकनीक उपलब्ध कराती हैं और उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए निवेश करती हैं।
वैज्ञानिकों के सामने आई बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करने की बात है कि कोको उद्योग से पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा। इसका मकसद एआईसीसीओ कोको ओबने वाले किसानों को सामुहिक सहयोग के लिए काम करना और खेती के आधुनिक तरीके अपनाने के लिए प्रेरित करना है।
यूनुसा अबू बकर का कहना है कि लगभग 50 लाख किसान कोको की खेती से जुड़े हुए हैं, लेकिन इनमें से कई लोगों का किसी का हिस्सा नहीं है, जिनकी वजह से उन तक पहुंचना मुश्किल है। कोको की गुणवत्ता के साथ-साथ यह सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण है कि इससे पर्यावरण को नुकसान न हो।
यूरोपीय संघ के एक कानून के तहत यदि किसी क्षेत्र में कोको उत्पाद के लिए वनों को अनपेक्षित किया जा रहा है तो वहां से आने वाले उत्पादों पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।
यूनुसा अबू बकर ने कहा, ”हमारा मानना है कि किसी उत्पाद से पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के लिए किसानों को जो अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ता है, उसका भुगतान भी जरूरी है।” किसानों को दाम भी मिले। ऐसी चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं कि भविष्य में बाजार से चॉकलेट गायब हो जाएगी। आशा मुझे है कि ऐसा नहीं होगा. अगर कोई भयानक प्राकृतिक आपदा नहीं आई तो कोको का उत्पादन भविष्य में लंबे समय तक जारी रहेगा।”
तो अब आपके मुख्य प्रश्न हैं कि किस चॉकलेट उत्पाद पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है?
जलवायु परिवर्तन की वजह से कोको ओबने वाले किसानों की आय पर बुरा असर पड़ रहा है। तो निश्चित रूप से चॉकलेट उत्पाद पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है।
मौसम में आ रहे बड़े बदलाव और कीटकों के फीचर्स से कोको के मैनेजमेंट पर असर पड़ रहा है। मगर इसके अलावा दूसरी समस्या यह है कि कोको उत्पादकों और पश्चिमी देशों के आय या मुनाफ़े में बहुत अधिक कमी है। मगर पश्चिमी आयातकों के पास उचित स्रोत हैं। फिलहाल तो वो कोको की अग्रिम खरीदारी कर के चॉकलेट की फैक्टरियों को पुराने संस्करण में रख सकते हैं।
(बीबीसी के लिए कलइंटरव्यू न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित)
Source link