कराची अंडरवर्ल्ड का वो कसाई जिसका अफ़्रीका तक फैला था साम्राज्य – BBC News हिंदी
- Author, जाफ़र रिज़वी
- पदनाम, पत्रकार, लंदन
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बंदूक़ की नाल मेरे चेहरे से बित्ते भर दूर थी. दूसरी ओर ग़ुस्सैल, बेरहम और ख़ूनी आंखें थीं. मेरा दिल जैसे सीने से निकाल कर मुंह में धक-धक कर रहा था और दिमाग़ केवल यह सोच रहा था कि यह गोली तो नहीं चला देगा!
यह हाजी इब्राहिम भोलू से मेरी पहली और आख़िरी मुलाक़ात थी.
क्या आप भी भोलू से मिलना चाहते हैं? लेकिन कराची के पिछड़े इलाक़े में पैदा होने वाले भोलू से या दुबई से दक्षिण अफ़्रीका तक करोड़ों डॉलर का ग़ैर क़ानूनी धंधा चलाने वाले हाजी इब्राहिम भोलू से?
चेतावनी: कहानी के कुछ विवरण आपको विचलित कर सकते हैं.
कराची के पटनी मोहल्ले की कच्ची-पक्की गलियों का भोलू, बैंकॉक के आलीशान अपार्टमेंट, दुबई के सबसे महंगे होटलों और मोज़ाम्बिक की राजधानी मापूतो के तड़क-भड़क वाले जुआघरों तक पहुंच कर हाजी इब्राहिम भोलू कैसे बना? अंडरवर्ल्ड की कमाई से राष्ट्रपति चुनाव की फ़ंडिंग कैसे करने लगा?
यह सनसनीख़ेज़ कहानी बहुत हैरत में डालने वाली है.
इस कहानी में आप अंडरवर्ल्ड के डॉन दाऊद इब्राहिम से भी मिलेंगे और पाकिस्तान से दुबई तक फैले हुए सट्टे, भत्ते (हफ़्ता), ड्रग्स, हुंडी, हवाला और हत्या व लूटपाट का धंधा चलाने वाले कराची अंडरवर्ल्ड के कई और किरदारों से भी आपकी मुलाक़ात होगी.
मगर पहले भोलू से मिलने बल्दिया टाउन, कराची चलते हैं.
कराची के सबसे पिछड़े हिस्सों में गिने जाने वाले इस इलाक़े में उर्दू बोलने वालों के साथ बलोच, पश्तून (पख़्तून), सिंधी, कच्छी, मेमन, पंजाबी, कश्मीरी सरायकी, हिंदको और हज़ारा… मतलब यह कि कराची में बसने वाले लगभग हर समुदाय से संबंध रखने वाले लोग यहां आबाद हैं.
1990 के दशक तक प्रशासनिक लिहाज़ से कराची के पश्चिमी ज़िले की यह घनी आबादी वाली बस्ती हमेशा ही कम आमदनी वाले मेहनतकश तबक़े का इलाक़ा रही. यह इलाक़ा अब ज़िला केमाड़ी का हिस्सा है. यहीं कहीं वह छोटा सा पटनी मोहल्ला था, जहां एक तंग गली में भोलू ने अपना बचपन बिताया.
मेरे कई सालों के शोध के अनुसार पेशे के लिहाज़ से क़साइयों के परिवार में पैदा होने वाला भोलू कभी पढ़ाई नहीं कर सका.
मगर आश्चर्यजनक रूप से यही अंगूठा छाप भोलू कराची की छात्र राजनीति के क्षितिज पर उभरा और वह भी छात्र नेता के तौर पर.
यह मुझे पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के छात्र संगठन पीपुल्स स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन (पीएसएफ़) कराची के पूर्व उपाध्यक्ष और मेरे और भोलू के बहुत पुराने दोस्त शाहनवाज़ शानी ने बताया.
शाहनवाज़ शानी ने बताया, ”बिल्कुल अंगूठा छाप था यह भोलू…मगर था बहुत ही चालाक. कॉलेज तो क्या उसने कभी स्कूल तक में पढ़ाई नहीं की थी, मगर वह बहुत तेज़ था. बहुत होशियार. बड़ा ही प्रतिभावान.”
शाहनवाज़ शानी के अनुसार भोलू अल्ताफ़ हुसैन की एमक्यूएम के सशस्त्र धड़े से संबंध रखने वाले नेता फ़ारूक़ पटनी के कज़न भी थे.
शाहनवाज़ शानी ने यह भी बताया, ”आपको याद होगा कि बक़रीद के सीज़न में क़साई बिरादरी के लड़के भी जानवर ज़बह (काट) करके पैसा कमा लेते थे. भोलू भी ऐसे काम कर लेता था मगर फिर, अल्लाह माफ़ करे, वह तो सचमुच का क़साई (हत्यारा) ही बन गया.”
भोलू ‘छात्र नेता’ कैसे बना ?
भोलू के कई दोस्तों, सरकारी अधिकारियों, पुलिस अफ़सरों, और सैनिक व ग़ैर सैनिक ख़ुफ़िया संस्थाओं के वर्तमान व पूर्व अधिकारियों ने यह कहानी आप तक पहुंचाने में मेरी मदद की है.
जुनैद मसूद भी उनमें ही से एक हैं. 1987 में गवर्नमेंट कॉलेज फ़ॉर बॉयज़, नाज़िमाबाद में ‘पीएसएफ़’ के अध्यक्ष रहने वाले जुनैद मसूद अब विदेश में रहते हैं.
उन्होंने मुझे बताया, ”भोलू पर शुरू में पीएसएफ़ के किसी नेता ने कोई ध्यान ही नहीं दिया. उस ज़माने में नेताओं में से किसी ने भोलू को शाहनवाज़ शानी से यह कहकर मिलवाया था कि यह लड़का राजनीतिक रुझान भी रखता है और हाथ-पैर का भी मज़बूत है. गठे हुए शरीर और औसत क़द वाले भोलू की ताक़त की कई कहानियां भी मशहूर थीं. जैसे यह कि वह बैक किक मार कर दीवार गिरा देता है या मवेशियों को हाथ से पकड़ कर गिरा सकता है.”
शाहनवाज़ शानी ने बताया कि भोलू शुरू से ही भारतीय फ़िल्मों वाले डॉन जैसा बनना चाहता था.
भोलू की कहानी तब शुरू हुई जब 17 अगस्त 1988 को देश के सैनिक राष्ट्रपति जनरल ज़ियाउल हक़ एक विमान हादसे में मारे गए और जनरल ज़िया के मार्शल लॉ के बाद देश में पहला आम चुनाव हुआ. उस चुनाव के बाद दो दिसंबर 1988 को बेनज़ीर भुट्टो के नेतृत्व में पीपुल्स पार्टी की पहली सरकार बनी.
हालांकि उस समय तक भी जनरल ज़ियाउल हक़ के मार्शल लॉ का असर समाज में पूरी तरह देखा जा सकता था.
असलहे बिल्कुल आम हो चुके थे. हथियारबंद जत्थों और संगठनों को मिलने वाले सरकारी संरक्षण के कारण छात्र राजनीति में भी हिंसा हावी हो चुकी थी.
थोड़ी सी बात और मामूली से विवाद पर भी हथियार निकल आता, गोलियां चलने लगतीं और नौबत हत्या व मार-काट तक पहुंच जाती. हथियार के बल पर चलने वाली छात्र राजनीति में आए दिन सशस्त्र झड़प होती. इन झड़पों में छात्र संगठनों के कार्यकर्ता या नेताओं की जान भी चली जाती थी.
यही वह ज़माना भी था जब अल्ताफ़ हुसैन की एमक्यूएम भी लोकप्रियता के उत्कर्ष पर थी. शहर में राष्ट्रीय व राज्य असेंबली की लगभग सभी सीटों पर कामयाब होकर कराची की अकेली प्रतिनिधि होने का दावा भी करती थी.
तब कराची की राजनीति आतंक और ताक़त के ज़ोर पर एक नई करवट ले रही थी.
उर्दू आर्ट्स कॉलेज पहुंचकर शाहनवाज़ शानी के साथ भोलू भी पीएसएफ़ के सशस्त्र धड़े से जुड़ गए.
उस ज़माने के छात्र नेता और शहर की गतिविधियों पर नज़र रखने वाले सभी वर्ग यह जानते थे कि कई बार जेल जाने वाले शाहनवाज़ शानी ख़ुद भी पीएसएफ़ के सशस्त्र धड़े में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे.
उर्दू आर्ट्स कॉलेज में लंबे समय तक पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष रहे प्रोफ़ेसर डॉक्टर तौसीफ़ अहमद कहते हैं, ”1990 के उस दशक में सब ताक़तवर राजनीतिक संगठन मनमानी करते थे. एमक्यूएम और पीएसएफ़ के लोग भी यही करते थे. तब शाहनवाज़ शानी के नेतृत्व में बहुत से ऐसे तत्व (छात्र के तौर पर) उर्दू आर्ट्स कॉलेज में वक़्त बिताते थे जो क्रिमिनल बैकग्राउंड रखते थे. भोलू भी उन्हीं में से एक थे.”
भोलू की युवा अवस्था का वह ज़माना, प्रतिभा का नहीं बल्कि ताक़त का ज़माना था. गोली, बंदूक़ और बाहुबल के सामने बैनर, पोस्टर, पैंफ़लेट, घोषणा पत्र और सिद्धांत की राजनीति की सांस उखड़ रही थी.
माहौल गरमाने का काम आग उगलने वाले छात्र नेताओं के भाषण नहीं बल्कि हथियारों की घन-गरज करने लगी थी. लगभग हर राजनीतिक दल में ऐसे तत्व नेतृत्व संभाल रहे थे जो आक्रमक या गरम मिज़ाज समझ जाते थे.
धीरे-धीरे और बिना पता चले हथियारबंद जत्थे या सशस्त्र धड़े लगभग हर राजनीतिक दल में वर्चस्व प्राप्त कर रहे थे.
बाहुबल की राजनीति का यह असर सत्ताधारी पीपुल्स पार्टी और एमक्यूएम पर भी हुआ मगर उससे कहीं अधिक प्रभाव दोनों राजनीतिक शक्तियों के छात्र संगठनों पर पड़ा.
पूरे शहर के शैक्षणिक संस्थानों में एमक्यूएम के छात्र संगठन पाकिस्तान मुहाजिर स्टूडेंट्स आर्गेनाइजज़ेशन (एपीएमएसओ) और पीएसएफ़ के समर्थकों में आए दिन मामूली तनाव से शुरू होने वाला विवाद कुछ ही पलों में सशस्त्र संघर्ष का रूप ले लेता.
यह प्रतिभा का नहीं बल्कि बाहुबल का ज़माना था. ताक़त और प्रतिभा जितनी अधिक होती जाती है, उतनी ही कम लगने लगती है. जुनैद मसूद के अनुसार भोलू बाहुबली और शाहनवाज़ शानी के अनुसार प्रतिभावान और होशियार थे.
बाहुबली भोलू की प्रतिभा ने डॉन बनने के लिए राजनीति का रास्ता चुना.
जुनैद मसूद ने मुझे बताया, ”उस ज़माने में हर समय तनाव और अघोषित युद्ध जैसी स्थिति रहती थी. ताक़त की राजनीति की वजह से पीपुल्स पार्टी समेत शहर के लगभग हर राजनीतिक संगठन का अस्तित्व ख़तरे में था. ऐसे में भोलू जैसे कार्यकर्ताओं पर ही ध्यान दिया जा सकता था. नतीजा यह हुआ कि कभी कभार चाय आदि लाने वाला भोलू अक्सर शाहनवाज़ शानी के पास दिखाई देने लगा.”
धीरे-धीरे शाहनवाज़ शानी के ज़रिए भोलू शहर में पीएसएफ़ के शीर्ष नेतृत्व यानी कराची के अध्यक्ष नजीब अहमद आदि के इतने क़रीब हो गया कि उन्हें विशेष महत्व दिया जाने लगा.
शाहनवाज़ शानी बताते हैं, ”असल में नजीब अहमद ने मुझसे कहा कि मुझे सिक्योरिटी के लिए कुछ साथी दो तो मैंने अय्यूब अतीक़, रऊफ़ नागौरी और भोलू को कहा कि तुम सब नजीब के साथ रहा करो. अय्यूब, रऊफ़ तो वापस लयारी या उर्दू आर्ट्स कॉलेज के पास आ गए क्योंकि उनके दोस्त सब उधर ही थे, मगर भोलू नजीब के बहुत क़रीब हो गया.”
पीएसएफ़ के नेताओं, विशेष कर नजीब अहमद से इतनी नज़दीकी की वजह से भोलू भी छात्र नेता कहलाने लगे.
हाजी इब्राहिम भोलू 1990 तक कराची में पीपुल्स पार्टी के छात्र संगठन पीएसएफ़ के कार्यकर्ता रह चुके थे. ग़ुस्सैल और आक्रामक रुझान वाले भोलू के बारे में पाकिस्तानी अधिकारियों का दावा रहा कि वह पीएसएफ़ के सशस्त्र धड़े का हिस्सा थे. फिर मुर्तज़ा भुट्टो के संगठन ‘अल ज़ुल्फ़िक़ार’ से जुड़े रहे. इसके साथ ही दक्षिण अफ़्रीका में ड्रग्स, हुंडी, हवाला स्मगलिंग और दूसरे अपराध से भोलू गैंग जुड़ गया.
भोलू से मेरी पहली और आख़िरी मुलाक़ात
और तभी मेरी और भोलू की पहली और आख़िरी मुलाक़ात हुई. दिन और तारीख़ तो मुझे याद नहीं, मगर यह शायद दिसंबर 1989 की बात है क्योंकि वह सर्दी का मौसम था.
तब मैं एनएसएफ़ (नेशनल स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन) कराची का सेक्रेटरी जनरल और शहर के बीच नॉर्थ नाज़िममाबाद के एच ब्लॉक में स्थित प्रीमीयर कॉलेज का छात्र था.
उस दिन एनएसएफ़ और पीएसएफ़ दोनों ही ओर से आक्रामक रुझान रखने वाले सदस्यों में तनाव शुरू हो गया था. इसकी वजह एनएसएफ़ के वह पोस्टर्स थे जो जागीरदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लगाए थे. तनाव इन पोस्टरों को फाड़ने के बाद शुरू हुआ. स्थिति इतना तनावपूर्ण हो गई कि उसे सामान्य करने के लिए मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा.
मेरे कहने पर बातचीत की जगह कॉलेज का मैदान तय हुआ. यह सोच कर कि तनाव कम करना है, किसी कार्यकर्ता को साथ ले जाने की बजाय मैंने अकेले जाना सही समझा.
दूसरी ओर से आए कलीम आफ़ंदी (बदला हुआ नाम, क्योंकि पीएसएफ़ के यह दोस्त अब एक बड़े वित्तीय संस्थान में ग्रुप डायरेक्टर के पद पर हैं और उनका नाम बताने से उनकी पेशेवर साख प्रभावित हो सकती है.)
प्रीमियर कॉलेज के छात्र कलीम आफ़ंदी तो मेरे दोस्त भी थे मगर बातचीत के लिए एक और युवा भी कलीम के साथ आया जो मेरे लिए बिल्कुल अजनबी था और वह था भोलू…
कड़ा चेहरा, अंदर को धंसी मगर आक्रामकता से भरपूर आंखें, उलझी हुई सी दाढ़ी, औसत सा क़द मगर सलवार-क़मीज़ पर वह जैकेट जिसे उस वक़्त ‘क्लाशनिकोट’ कहा जाता था और उस पर सिंध की परंपरागत चादर ‘अजरक’ ओढ़े हुए भोलू.
उस वक़्त तक तो मैंने भोलू का नाम भी कभी नहीं सुना था. मैंने दोनों से हाथ मिलाना चाहा. कलीम ने तो आधे दिल से हाथ मिला भी लिया मगर भोलू ने मेरे बढ़े हुए हाथ को नज़रअंदाज़ कर दिया.
मैंने बड़े दोस्ताना अंदाज़ में कलीम से कहा, ”यार! क्यों बेमतलब का तनाव है माहौल में? क्या हम इसे ख़त्म कर सकते हैं?”
जवाब में पल भर के लिए कलीम की ख़ामोशी से मुझे अंदाज़ा हो गया कि मामला आसानी से सुलझने वाला नहीं.
मैंने फिर पूछा, ”कलीम, क्यों उत्तेजित हो तुम लोग?” बस तभी भोलू ने अचानक हस्तक्षेप किया.
मैं भोलू का चेहरा कभी नहीं भूल सका. मुझे तो उसके चेहरे पर उभरी भारी ग़ुस्से की झलक आज तक याद है.
भोलू ने अपने भिंचे हुए होंठ फैलाए, आंखें सिकोड़ लीं और चिल्ला कर मुझसे कहा, ”बैज उतार…”
अपनी क़मीज़ पर लगा हुआ एनएसएफ़ का बैज उतारने की भोलू की मांग पर मेरी निगाह भोलू के सीने की तरफ़ उठी जहां पीएसएफ़ का बैज लगा हुआ था.
भोलू का आक्रामक रुख़ नज़रअंदाज़ करते हुए मैंने भोलू से कहा, ”बैज तो आपने भी लगाया हुआ है. हम बैज लगाकर भी तो बात कर सकते हैं.”
जवाबी प्रतिक्रिया बहुत ही अप्रत्याशित थी.
भोलू ने अचानक अपनी अजरक उतार फेंकी. अजरक उतरते ही उनके सीने पर बंधी हुई क्लाशनिकॉफ़ राइफ़ल (एके 47) नज़र आ गई.
बेहद फुर्ती और महारत से राइफ़ल लोड करते हुए भोलू ने उसे मेरी तरफ़ कर दिया. मैं बहुत परेशानी और बेचैनी में केवल एक बात सोच रहा था.
जान बचाऊं या पार्टी की राजनीति, साख और प्रतिष्ठा? अगर मैं भोलू के कहने पर बैज उतार देता तो यह एनएसएफ़ को कमज़ोर दिखा सकता था. दूर से देखते साथियों का हौसला पस्त कर सकता था. कॉलेज में एनएसएफ़ की लोकप्रियता और राजनीतिक शक्ति पर प्रश्न चिन्ह लगा सकता था.
यही सब सोचते हुए मेरी नज़रें न चाहते हुए भी भोलू की उंगलियों पर थीं. कहीं यह गोली चला तो नहीं देगा?
सोचने के लिए मैंने कुछ पलों का जो समय लिया उसी से भोलू और बिफर गया. ”बैज उतार”… दूसरी बार आदेश देते हुए भोलू ने मुझे गाली दी.
आख़िरी चीज़ जो मैं अपने होश में देख सका वह बंदूक़ पर मचलते हुए भोलू के हाथ थे.
बैज न उतारने पर उत्तेजित भोलू ने झुंझला कर बंदूक़ का बट मुझे दे मारा और फिर आसपास मौजूद उनके दूसरे साथी मुझ पर पिल पड़े. जिसके हाथ में जो चीज़ आई उसने उससे मुझे पर हमला कर दिया.
होश आया तो पहली चीज़ जो नज़र आई वह कैंची थी जो मेरी पहुंच में थी. मैंने अपनी रक्षा में कैंची उठाई और जो पहला इंसानी हाथ नज़र आया, कैंची उसकी तरफ़ तान ली.
मगर पूरी तरह होश में आने पर समझ में आया कि वह कैंची असल में एक डॉक्टर की थी जो नॉर्थ नाज़िमाबाद के ज़ियाउद्दीन हॉस्पिटल में मेरे ज़ख़्मों की मरहम पट्टी कर रहे थे.
यह भी समझ में आया कि मेरी और भोलू की पहली और आख़िरी मुलाक़ात ख़त्म हो चुकी है.
भोलू जैसे तत्व घेरे जाने लगे
जिस ज़माने मैं भोलू से मेरी यह मुलाक़ात हुई, बिल्कुल उसी दौरान सत्तारूढ़ पीपुल्स पार्टी की राजनीतिक प्रोफ़ाइल भ्रष्टाचार के आरोपों से धुंधलाने लगी और देश के राजनीतिक क्षितिज पर एक अजीब नक़्शा बनने लगा.
तब तक बेनज़ीर भुट्टो सरकार की सहयोगी रहने वाली एमक्यूएम ने अचानक पीपुल्स पार्टी पर भ्रष्टाचार और वादा ख़िलाफ़ी का आरोप लगाना शुरू कर दिया था. लगातार आलोचना के बाद आख़िरकार एमक्यूएम पीपुल्स पार्टी की इस गठबंधन सरकार से अलग हो गई.
अब पीपुल्स पार्टी और एमक्यूएम के बीच राजनीतिक शक्ति की नई रस्साकशी शुरू हुई और मैदान-ए-जंग बनीं शहर की गलियां, बाज़ार और शिक्षण संस्थान.
दोनों राजनीतिक दल एक दूसरे पर भ्रष्टाचार, हत्या और मार-काट व आतंकवाद के आरोप लगाया करते और शैक्षणिक संस्थानों में आए दिन सशस्त्र संघर्ष हुआ करते.
ऐसे में ही 8 जून 1989 को कराची यूनिवर्सिटी में अज़ीज़ुल्लाह उजन समेत पीएसएफ़ के तीन पदाधिकारी एक सशस्त्र झड़प में मारे गए. पीएसएफ़ ने एमक्यूएम को उनकी मौत का ज़िम्मेदार ठहराया.
तनाव इतना बढ़ गया कि पीएसएफ़ कराची के अध्यक्ष नजीब अहमद ने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में अपना संगठन बंद करने और राजनीतिक गतिविधियां स्थगित करने की घोषणा कर दी. कुछ ही महीनों में दोनों संगठनों के कई कार्यकर्ता बाहुबल की राजनीति का निशाना बने.
स्थिति इतनी बिगड़ गई की 6 अप्रैल 1990 को ख़ुद नजीब अहमद नॉर्थ नाज़िमाबाद में अपने घर के पास घात लगाकर किए गए एक क़ातिलाना हमले में गंभीर रूप से घायल हो गए. घायल होने के पांच ही दिन बाद यानी 11 अप्रैल 1990 को वह ज़िंदगी की बाज़ी हार गए.
यह मामूली हत्या नहीं थी. सत्तारूढ़ पीपुल्स पार्टी के छात्र संगठन के इतिहास के सबसे नामी नेता और कराची के अध्यक्ष नजीब अहमद का शहर के बीचो-बीच मर्डर हुआ था.
पीएसएफ़, पीपुल्स पार्टी और सरकार- सबने नजीब अहमद की हत्या का ज़िम्मेदार भी एमक्यूएम को ठहराया मगर एमक्यूएम और अल्ताफ़ हुसैन दोनों ही नजीब अहमद समेत सभी हत्याओं के आरोपों से हमेशा इनकार करते रहे.
एमक्यूएम ने इसी बीच होने वाले अपने कार्यकर्ताओं की हत्या का ज़िम्मेदार पीएसएफ़ या पीपुल्स पार्टी को ठहराया.
अल्ताफ़ हुसैन का हमेशा यह कहना रहा कि सरकारी ख़ुफ़िया संस्थाएं ऐसे आतंकवाद में शामिल हैं जिसका मक़सद एमक्यूएम को बदनाम करके उसकी लोकप्रियता के ख़िलाफ़ सरकारी कार्रवाई के लिए माहौल तैयार करना था.
इस दौरान पाकिस्तान की राजनीतिक हिंसा का एक नया रुख़ सामने आया.
सरकारी अधिकारियों की ओर से यह बताया जाने लगा कि देश में मौजूद अधिकतर राजनीतिक, धार्मिक, सांप्रदायिक और अलगाववादी दल और जिहादी संगठनों से जुड़े तत्व देश के अंदर और बाहर पाकिस्तान या विदेशी ख़ुफ़िया संस्थाओं के ट्रेनिंग सेंटर में आतंकवाद की ट्रेनिंग लेते रहे हैं.
सार्वजनिक रूप से लगातार लगाए जाने वाले पुलिस और क़ानून लागू करने वाले दूसरे फ़ौजी व ग़ैर फ़ौजी संस्थाओं के ऐसे आरोप सनसनीख़ेज़ सुर्खियों के साथ पाकिस्तानी मीडिया में छाए रहे.
अधिकारियों का कहना था कि ऐसे तत्वों को आतंकवादी गतिविधियों के लिए अफ़ग़ानिस्तान, भारत और कश्मीर में बने ट्रेनिंग सेंटरों में सशस्त्र कार्रवाइयों की ट्रेनिंग दी जाती है.
भोलू की कहानी में मेरी मदद करने वाले कुछ सरकारी अधिकारी और दूसरे लोग भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि भोलू भी किसी ट्रेनिंग सेंटर में हथियार और सशस्त्र कार्रवाइयों की ट्रेनिंग लेने के लिए आते-जाते रहे.
आख़िरकार 6 अगस्त 1990 को उस समय के राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक़ ख़ान ने भ्रष्टाचार के आरोप में बेनज़ीर भुट्टो की सरकार बर्ख़ास्त कर दी और ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के साथी मगर बेनज़ीर भुट्टो के विरोधी ग़ुलाम मुस्तफ़ा जतोई को प्रभारी प्रधानमंत्री बना दिया.
सिंध में भी पीपुल्स पार्टी के मुख्यमंत्री आफ़ताब शोबान मीरानी की सरकार भंग कर दी गई और पीपुल्स पार्टी के चिर विरोधी समझे जाने वाले जाम सादिक़ अली को मुख्यमंत्री बना दिया गया.
सत्ता की छतरी सर से हटते ही पीपुल्स पार्टी, पीएसएफ़ और भोलू जैसे तत्व पर ज़िंदगी तंग होने लगी.
विदेश में बसे पीएसफ़ के एक पूर्व नेता और भोलू के दोस्त ने नाम न बताने की शर्त पर मुझसे दावा किया कि मुख्यमंत्री जाम सादिक़ ने ”हम सब (नजीब अहमद के दोस्त पीएसएफ़ कार्यकर्ताओं) को बुलवाया और ग़ुलाम मुस्तफ़ा जतोई की नेशनल पीपुल्स पार्टी में शामिल होने की शर्त पर जान बख़्शने की पेशकश की. हम में से किसी ने भी उस प्रस्ताव को क़बूल नहीं किया.” (चूंकि जाम सादिक़ अब इस दुनिया में नहीं इसलिए उनकी प्रतिक्रिया नहीं ली जा सकती.)
लेकिन जुनैद मसूद ने भी अपने साथी के दावे की पुष्टि की और बताया कि जाम सादिक़ ने कहा कि दो ही रास्ते हैं…”या हमारे साथ हो जाओ या…”
फिर उस ”या” की शुरुआत हुई. 22 अगस्त को शहर में एमक्यूएम के कई कैंपों पर फ़ायरिंग की घटनाएं हुईं और आरोप पीएसएफ़ के सदस्यों पर लगा.
पीपुल्स पार्टी और पीएसएफ़ के सदस्यों की गिरफ़्तारियों और पकड़-धकड़ का सिलसिला शुरू हुआ.
उस समय के अख़बारों और दूसरे समाचार माध्यमों के अनुसार पीएसएफ़ के बहुत से सदस्यों पर मुक़दमे हुए. पीएसएफ़ के पूर्व नेताओं के दावों के अनुसार गिरफ़्तारियों के लिए पीएसएफ़ के कई वांटेड नेताओं के सर की क़ीमत तक तय होने लगी.
पीपुल्स पार्टी की सरकार गिर जाने और सरकारी ताक़त छिन जाने के बाद यह नया माहौल पीएसएफ़ के लिए बहुत मुश्किल हो गया. पीएसएफ़ के बहुत से कार्यकर्ताओं ने विदेश चले जाने में ही भलाई समझी.
ऐसे हालात में बहुत मुश्किलों का सामना कर रही पीपुल्स पार्टी के अंदर गुटबंदी और खींचातानी शुरू हुई.
अब तक तो मीडिया और विरोधी पीपुल्स पार्टी के कथित भ्रष्टाचार की आलोचना करते थे मगर अब ख़ुद पार्टी के अंदर से भी आलोचना और आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया.
यहां तक कि ख़ुद प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो के भाई मीर मुर्तज़ा भुट्टो ने भी अपनी बहन की सरकार की भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कई बार खुलेआम आलोचना की. इससे पीपुल्स पार्टी में बेनज़ीर भुट्टो और मुर्तज़ा भुट्टो के समर्थकों में दरार गहरी होने लगी.
आख़िर में मुर्तज़ा भुट्टो ने ख़ुद को अपने पिता ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो का असली वारिस और उत्तराधिकारी बताते हुए पीपुल्स पार्टी शहीद भुट्टो की बुनियाद रखी.
मुर्तज़ा भुट्टो 18 अक्टूबर 1993 के चुनाव में लाड़काना के अपने पैतृक ज़िले से सिंध असेंबली के सदस्य चुने गए. इसके बाद वह स्वनिर्वासन ख़त्म करके पाकिस्तान वापस आए तो यहां उनकी बहन (उस समय की प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो) के आदेश पर मुर्तज़ा भुट्टो को आतंकवाद के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया.
और तब ही पीपुल्स पार्टी के सशस्त्र धड़े के बहुत से सदस्य मुर्तजा भुट्टो से जा मिले. जुनैद मसूद का कहना है, ”फिर भोलू से हमारा संपर्क टूट गया. वह भी मुर्तज़ा भुट्टो के साथ जा मिला.”
अधिकतर पाकिस्तानी अधिकारियों की कई वर्षों तक यह राय रही कि मुर्तज़ा भुट्टो एक चरमपंथी संगठन ‘अल ज़ुल्फ़िक़ार’ का नेतृत्व करते थे जो जनरल ज़ियाउल हक़ के दौर में और बेनज़ीर भुट्टो की सरकार के दौरान भी कई आतंकवादी गतिविधियों में शामिल रहा.
हालांकि सरकारी संस्थाओं ने सिंध में आतंकवाद की कई घटनाओं को वर्षों तक ‘अल ज़ुल्फ़िक़ार’ से जोड़ा लेकिन पीपुल्स पार्टी और मुर्तज़ा भुट्टो हमेशा ‘अल ज़ुल्फ़िक़ार’ के अस्तित्व से ही इनकार करते रहे. वह उसे सरकार के अधिकारियों का मनगढ़ंत संगठन बताते रहे.
लेकिन शाहनवाज़ शानी ने मुझसे बातचीत में पुष्टि की कि भोलू भी ‘अल ज़ुल्फ़िक़ार’ के साथ जुड़ गए थे.
पुलिस रिकॉर्ड्स, जांच अधिकारियों, अदालती दस्तावेज़ों, सरकारी अधिकारियों और पीएसएफ़ के दोस्तों के अनुसार, ”तेज़ दिमाग़ और ताक़तवर भोलू ‘अल ज़ुल्फ़िक़ार’ से जुड़कर भी बहुत कुछ करते रहे. वह कथित तौर पर मुर्तज़ा भुट्टो के नज़दीकी साथी अली सुनारा आदि के साथ मिलकर आतंकवाद की कई घटनाओं में शामिल रहे.”
भोलू कराची से मोज़ाम्बिक पहुंच गया
मध्य पूर्व में रह रहे पूर्व पीएसएफ़ नेता ने मुझे बताया कि उसी ज़माने में भोलू किसी तरह मलेर कैंट के पास स्थित कराची में घोड़े की रेस पर जुए के लिए मशहूर रेस कोर्स के राना साहब तक पहुंचा.
कई साल पहले एक संवेदनशील सरकारी पदाधिकारी ने मुझे बताया था कि पता नहीं रेस उनका व्यक्तिगत शौक़ था या पैसे का आकर्षण था, या वह बतौर ड्यूटी यह सब करते थे मगर ”हमारे भी कुछ अधिकारी रेस कोर्स के मामलों से जुड़े हुए थे.”
मध्य पूर्व में रह रहे भोलू के दोस्त और पीएसएफ़ नेता का कहना है कि फिर शायद उन्हीं राना साहब और उनकी बेगम ने भोलू को समझाया कि कराची में ”हालात तुम्हारे लिए ठीक नहीं.”
”राना साहब और उनकी बेगम ने भोलू को पेशकश की कि अगर भोलू चाहें तो राना साहब अफ़्रीकी देश मोज़ाम्बिक जाने में भोलू की मदद कर सकते हैं”
इस तरह राना साहब और उनकी पत्नी की मदद से भोलू मोज़ाम्बिक पहुंचे.
नाम न बताने की शर्त पर एक साझा दोस्त ने कहा कि भोलू के जाने के कुछ समय बाद उनके क़रीबी दोस्त और पूर्व पीएसएफ़ नेता मंज़र अब्बास जाफ़री भी दक्षिण अफ़्रीका पहुंचे.
कराची पुलिस के कई पूर्व और कुछ वर्तमान उच्च अधिकारियों के अनुसार, ”पंजाब के शहर गुजरात से संबंध रखने वाले मंज़र अब्बास जाफ़री भी उसी रास्ते के मुसाफ़िर थे जिस पर भोलू चल रहे थे.”
भोलू और मंज़र पीएसएफ़ के मारे गए अध्यक्ष नजीब के क़रीबी साथी रहे थे. एक ग़ैर फ़ौजी ख़ुफ़िया संस्था के पूर्व अधिकारी के अनुसार ”दोनों की केमिस्ट्री बड़ी मैच करती थी.”
शाहनवाज़ शानी का कहना है कि मोज़ाम्बिक जाने के बाद भी भोलू कई बार पाकिस्तान आते-जाते रहे.
”एक बार वह आया तो मुझे अपनी कामयाबी की कहानी सुनाने लगा. मैंने पूछा कि यह बताओ कि इधर के बेवक़ूफ़ उधर (मोज़ाम्बिक या दक्षिण अफ़्रीका) जाकर डॉन कैसे बन जाते हैं, तो भोलू हंसने लगा.”
राष्ट्रपति चुनाव की फ़ंडिंग
शाहनवाज़ शानी का यही सवाल मेरे लिए भी एक ऐसी पहेली बना रहा जिसका जवाब तलाश करने में मुझे कई साल लगे और यह जवाब मुझे मिला अफ़्रीकी देश में पाकिस्तानी गैंगस्टर के साथ लंबे समय तक जुड़े रहने वाले अपने एक ‘सूत्र’ से जो विद्यार्थी जीवन में कभी मेरे संपर्क में रहे थे.
मेरे सूत्र के अनुसार, ”असल में मोज़ाम्बिक में एक पाकिस्तानी मेमन सेठ (जिनका नाम किसी वजह से उन्होंने भी नहीं बताया) भोलू और मंज़र से कहीं पहले मोज़ाम्बिक के अंडरवर्ल्ड धंधे के बड़े खिलाड़ी बन चुके थे.
”असल में इस मेमन सेठ ने ही भोलू-मंज़र गैंग को स्थानीय अंडरवर्ल्ड पर छा जाने में मदद की. वह मेमन सेठ अंडरवर्ल्ड धंधे में दाऊद इब्राहिम से भी जुड़े हुए थे.”
मेरे सूत्र के अनुसार वह मेमन सेठ कराची रेस कोर्स के राना साहब से भी संपर्क में थे और उन्होंने भोलू और मंज़र के ज़रिए अपने काम को ऊंचाई पर पहुंचा दिया.
कुछ साझा दोस्तों के अनुसार भोलू और मंज़र ने भी फिर दक्षिण अफ़्रीका पहुंचने पर मेमन सेठ की बताई गई रणनीति पर जोहानसबर्ग से मोज़ाम्बिक की राजधानी मापूतो तक एक संगठित गिरोह बना लिया.
कराची अंडरवर्ल्ड के महत्वपूर्ण किरदार रहने वाले भोलू और मंज़र के लिए ताक़त और पैसे के बल पर मापूतो के अपराधकर्मियों के धंधे पर क़ब्ज़ा कर लेना बहुत ही आसान साबित हुआ.
मध्य पूर्व में रह रहे दोस्त के अनुसार पहले तो भोलू-मंज़र गैंग ने डिस्को क्लब की आड़ में अपराध के धंधे चलाने वाले मापूतो के अंडरवर्ल्ड से टक्कर ली.
भोलू मंज़र गैंग ने जल्द ही स्थानीय आपराधिक गिरोहों को मार भगाया और ख़ुद ग़ैर क़ानूनी धंधों के हर क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करते चले गए.
भोलू मंज़र गैंग ने शराब, जुआ, ड्रग्स, नक़ली करंसी, सट्टा, भत्ता (हफ़्ता), हुंडी, हवाला और स्मगलिंग समेत हर वह ग़ैर क़ानूनी काम किया जिसमें बेतहाशा पैसा कमाया जा सकता था.
पैसे के बल पर ताक़त और ताक़त के बल पर और पैसे के फ़ॉर्मूले पर इस गिरोह ने दक्षिण अफ़्रीका से मध्य पूर्व तक एक बहुत ही संगठित नेटवर्क बनाया.
कुछ बेहद नज़दीकी सूत्रों ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि भोलू-मंज़र और पीएसएफ़ के सशस्त्र धड़े से अलग हो जाने वाले बहुत से लोग भी इस गैंग का हिस्सा बनते गए.
लेकिन जल्द ही दक्षिण अफ़्रीका के शहर जोहानसबर्ग में पहले से ही मौजूद आपराधिक तत्वों का एक और गिरोह भोलू-मंज़र गैंग के सामने आ खड़ा हुआ. यह गिरोह असल में दाऊद इब्राहिम का दाहिना हाथ रहे और बाद में सबसे बड़े दुश्मन बन जाने वाले छोटा राजन का नेटवर्क था.
भोलू और मंज़र को उनके ख़िलाफ़ लड़ाई में दाऊद इब्राहिम की भी भरपूर मदद मिल रही थी, क्योंकि राजन ने दाऊद इब्राहिम से किनारा करके कथित तौर पर भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों से हाथ मिला लिया था
दाऊद इब्राहिम, उनके पाकिस्तानी दोस्तों और भोलू मंज़र गैंग- सबने मिलकर छोटा राजन नेटवर्क समेत सबको ठिकाने लगाना शुरू किया.
कराची पुलिस के पूर्व अधिकारी एसएसपी राव अनवार ने भी मुझे बताया कि जल्द ही दक्षिण अफ़्रीका में भोलू के पास बहुत पैसे आ गए.
पीएसएफ़ के कम से कम दो पूर्व पदाधिकारियों ने मुझसे बातचीत में पुष्टि की कि एक ऐसा समय आया जब भोलू-मंज़र गैंग मोज़ाम्बिक के राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवारों की ‘फ़ंडिंग’ करने लगा.
यानी पटनी मोहल्ले का अंगूठा छाप भोलू यह फ़ैसला करने लगा के मोज़ाम्बिक जैसे देश में राष्ट्रपति कौन होगा?
कराची जेल में मेरे सूत्र के अनुसार भोलू ने मोज़ाम्बिक में अपने गॉडफ़ादर मेमन सेठ की बेटी से शादी भी कर ली. भोलू के दो बच्चे भी थे.
इस बीच, इधर पाकिस्तान में एक नया खेल शुरू हुआ.
नवाज़ शरीफ़ की सरकार ने फ़ौज और सरकारी संस्थाओं की मदद से सिंध में कच्चे के इलाक़े में डाकुओं और फिरौती के लिए अपहरण की वारदातों के ख़िलाफ़ 1992 का ‘ऑपरेशन क्लीनअप’ शुरू किया. फिर 19 जून 1992 को अचानक ही इस ऑपरेशन का रुख़ अल्ताफ़ हुसैन की एमक्यूएम की ओर मुड़ गया.
1994 में जब ऑपरेशन अपने चरम पर था और बेहद विवादित पुलिस मुठभेड़ों और हिरासत के दौरान बिना अदालती ज़रूरत एमक्यूएम के सदस्यों की मौतों का सिलसिला शुरू हुआ तो एमक्यूएम के सशस्त्र धड़े के सदस्यों ने भी देश से निकल जाने में ही भलाई जानी. इसके बाद एमक्यूएम के भी बहुत से लोग उसी दक्षिण अफ़्रीका पहुंचे जहां भोलू और मंज़र गैंग पहले ही एक मज़बूत नेटवर्क चला रहे थे.
अब एक नए सिलसिले की शुरुआत हुई. अब अकूत धन दौलत और ताक़त रखने वाले भोलू और मंज़र को अपने युवावस्था की दोस्तियां और दुश्मनियां दोनों याद आईं.
भोलू मंज़र गैंग ने दक्षिण अफ़्रीका पहुंचने वाले अपने चिर विरोधियों यानी एमक्यूएम सदस्यों को दक्षिण अफ़्रीकी शहरों में आड़े हाथों लिया. जिनको निशाना बना सकते थे, बनाया और जिनको नहीं बना सके उनके बारे में सूचना पाकिस्तानी अधिकारियों को भेजी.
कराची जेल में एक सूत्र ने बताया कि नतीजा यह हुआ कि फ़र्ज़ी नाम या फ़र्ज़ी पासपोर्ट पर भी देश वापस पहुंचने वाले एमक्यूएम सदस्यों को सरकारी एजेंसियां भोलू और मंज़र की पुख़्ता जानकारी पर एयरपोर्ट पर ही धर लेतीं.
पाकिस्तान से बाहर रहने वाले पीएसएफ़ के तीन पूर्व पदाधिकारियों और भोलू के क़रीबी दोस्तों ने दावा किया कि उस ज़माने में ”यह हाल था कि कोई भी पाकिस्तानी नागरिक अगर मोज़ाम्बिक के हवाई अड्डे पर उतरता था तो उसके पासपोर्ट की कॉपी भोलू और मंज़र को भी फ़ैक्स की जाती थी ताकि उन्हें पता चल जाए कि कौन यहां आया है.”
कराची पुलिस के पूर्व अधिकारी राव अनवार ने मुझे बताया, ”भोलू ने ऐसे कई मौक़ों पर हमारी बहुत मदद की. यह मेरी कोई व्यक्तिगत मदद नहीं थी. वह देश प्रेम में ऐसा कर रहा था. उसमें देश प्रेम बहुत था और उसने देश के लिए यह सब किया.”
जुनैद मसूद भी कहते हैं कि भोलू के दोस्त कभी कभार बातों में उसकी चर्चा करने पर यह कहते रहे कि पैसे और ताक़त आ जाने के बाद उसने सोचा कि देश के लिए भी कुछ करना चाहिए.
यानी उस समय एक ओर भोलू मंज़र गैंग एमक्यूएम से अपना हिसाब चुका रहा था और दूसरी ओर दक्षिण अफ़्रीका में अपना ग़ैर क़ानूनी धंधा बढ़ाता जा रहा था. मापूतो से जोहानिसबर्ग तक आलीशान जुआघरों, महंगे होटलों और चमक-दमक वाले वेश्यालयों में भोलू मंज़र गैंग का सिक्का चल रहा था.
जल्द ही इस गिरोह की शोहरत मापूतो और जोहानिसबर्ग से निकलकर कराची और दुबई पहुंचने लगी.
पाकिस्तानी पत्रिका ‘न्यूज़लाइन’ के सितंबर 2001 के अंक के अनुसार दाऊद इब्राहिम भी दक्षिण अफ़्रीका में ड्रग्स का धंधा चल रहे थे. जल्द ही भोलू मंज़र गैंग ने दक्षिण अफ़्रीका में दाऊद इब्राहिम का स्थानीय काम भी संभाल लिया.
कराची और मुंबई अंडरवर्ल्ड के इस मिलन की वजह से अफ़्रीकी देशों में हिंसा की एक और लहर दौड़ गई. दक्षिण अफ़्रीका में गैंगवार की बहुत सी घटनाएं हुईं जिसमें कई जानें चली गईं.
अब भोलू दाऊद इब्राहिम के भी उतने ही क़रीब हो गए जितने वह किसी वक़्त पीएसएफ़ के अध्यक्ष नजीब अहमद के क़रीब रहे थे. फ़र्क़ बस यह पड़ा कि अब भोलू की फरमाइश पर उन्हें हाजी इब्राहिम भोलू और हाजी साहब कहा जाने लगा.
यह सब चल ही रहा था कि भोलू की किस्मत दग़ा दे गई और दुबई में दाऊद इब्राहिम के ज़रिए ही भोलू की मुलाक़ात कराची अंडरवर्ल्ड के एक और किरदार शोएब ख़ान से हुई.
शोएब ख़ान भी अंडरवर्ल्ड किंग बनने का सपना आंखों में सजाए ‘दाऊद भाई’ के आकर्षण में दुबई पहुंचे थे.
शोएब की कहानी पूरे विस्तार से इस सिरीज़ की पहली क़िस्त में आप तक पहुंच चुकी है.
जल्दी शोएब ख़ान और भोलू दो बदन, एक जान हो गए. अब कराची हो या दुबई, जोहानिसबर्ग हो या मापूतो, भोलू के लिए सब एक जैसा हो गया. जब जी चाहा कराची और जब दिल चाहा जोहानिसबर्ग.
भोलू का पतन तब शुरू हुआ जब दाऊद इब्राहिम ने धंधे में अपने सबसे बड़े विरोधी और किसी समय अपने सबसे क़रीबी साथी छोटा राजन को रास्ते से हटाने का फ़ैसला किया. इस काम की फरमाइश दाऊद इब्राहिम ने शोएब ख़ान से की जो कराची अंडरवर्ल्ड मामलों में दाऊद इब्राहिम के पार्टनर बन चुके थे.
छोटा राजन कथित तौर पर भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों से हाथ मिलाकर दाऊद इब्राहिम के ख़िलाफ़ अपना गिरोह बना चुके थे और बैंकॉक में अपने एक भरोसेमंद साथी और टॉप शूटर रोहित वर्मा के अपार्टमेंट में रहते थे.
शोएब ख़ान ने छोटा राजन को रास्ते से हटाने का यह काम भोलू के सुपुर्द किया.
भारतीय सूत्रों के अनुसार कराची से भोलू के साथियों का पहला दस्ता 31 अगस्त 2000 को इन स्पष्ट निर्देशों के साथ बैंकॉक पहुंचा कि या तो ”राजन को कराची ले आओ या उसे ख़त्म कर डालो.”
‘न्यूज़लाइन’ के अनुसार भोलू ने राजन की हत्या के लिए जिन लोगों को चुना उनमें से तीन का संबंध पहले ‘अल ज़ुल्फ़िक़ार’ से रह चुका था. उन्हें काम कर देने के बदले में बड़ी रक़म की पेशकश की गई थी.
14 सितंबर 2000 की रात 9:30 बजे का समय था जब महंगे काले जैकेट सूट और चमड़े के क़ीमती जूते में भोलू अपने दूसरे सात साथियों के साथ रोहित वर्मा के उस अपार्टमेंट की बिल्डिंग के मेन गेट पर पहुंचे.
भोलू के साथियों में थाईलैंड के दो नागरिक भी शामिल थे जो एक बड़ा सा केक उठाए हुए थे ताकि दरवाज़े पर तैनात गार्डों को धोखा दे सकें और यही हुआ.
इस शान शौकत से रोब में आ गए गार्ड ने यह सुनकर उन सभी लोगों को इमारत में जाने दिया कि वह वहां रहने वाले अपने दोस्त की सालगिरह पर सरप्राइज़ देने आए हैं.
सीढ़ियों से ऊपर पहुंचकर अब भोलू और उनके साथी उस फ़्लैट के अंदुरूनी दरवाज़े पर पहुंचे जिनके लाउंज में रोहित वर्मा, उनकी पत्नी संगीता और एक बच्चा टीवी देख रहे थे.
दरवाज़े पर घंटी की आवाज सुनकर ‘पीप आई’ से किसी ने अंदर से झांक कर देखा तो सामने दो मुस्कुराते हुए थाई नागरिक बड़ा सा केक उठाए हुए दिखाई दिए. मगर दीवार से चिपके खड़े हुए भोलू और उनके साथी नज़र नहीं आ सके और यही धोखा बहुत महंगा पड़ा.
दरवाज़ा खुलते ही 9 एमएम की पिस्तौलों से लैस भोलू और उनके साथी अंदर गए और गोलियों की बौछार कर दी. गोलियां लगने से सबसे पहले तो रोहित वर्मा गिरे. फिर एक गोली उन्हें बचाने के लिए दौड़ती हुई आई उनकी पत्नी संगीता को लगी.
यह सब देखकर घबराई हुई रोहित की घरेलू नौकरानी कमीला रसोई घर की तरफ़ भागी. भोलू और उनके साथियों को जिस शिकार यानी छोटा राजन की तलाश थी वह कहीं दिखाई नहीं दिया.
फिर अचानक किसी साये ने बेडरूम की बालकनी से नीचे गार्डन में छलांग लगाई. यही छोटा राजन थे.
भोलू और उनके साथियों ने भागते हुए राजन पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं मगर एक गोली पेट और दूसरी दाईं जांघ में लगने के बावजूद राजन कूद कर जान बचाने में कामयाब रहे.
फ़्लैट में वापस पहुंच कर छोटा राजन ने रोहित वर्मा को मुर्दा और संगीता को गंभीर रूप से घायल पाया. बेडरूम में जाने वाले राजन ने पहला फ़ोन अपने सबसे क़रीबी साथी ग्रोस्तम को किया और चौथा मगर आख़िरी फ़ोन थाई पुलिस को.
राजन तो बच गए मगर कराची में शोएब ख़ान और भोलू की दोस्ती न बच सकी. इस वारदात की नाकामी पर बेहद उत्तेजित दाऊद इब्राहिम की पहले शोएब ख़ान से गर्मागर्मी हुई और फिर शोएब ख़ान और भोलू में मतभेद हुआ.
‘न्यूज़लाइन’ के अनुसार शोएब ने भोलू के तीन साथियों को वादा की गई रक़म देने से इनकार कर दिया जिस पर भोलू ने उन लोगों को अपनी जेब से पैसे तो अदा कर दिए लेकिन वह शोएब खान के भारी विरोधी हो गए.
शोएब ख़ान के हाथों भोलू की हत्या
भोलू की ओर से सुपारी की रक़म की मांग और शोएब की तरफ़ से इससे इनकार से संबंध इस हद तक बिगड़ गए कि शोएब ने भोलू से हमेशा के लिए जान छुड़ाने का फ़ैसला किया.
पाकिस्तान के अंग्रेज़ी अख़बार ‘डॉन’ ने 13 जनवरी 2005 को बताया कि कराची के गुज़री थाने में दर्ज एफ़आईआर के अनुसार ख़याबान-ए-ग़ाज़ी के रहने वाले हाजी इब्राहिम भोलू उसी इलाक़े के ख़याबान-ए-सहर से लापता हो गए.
जहां से भोलू लापता हुए वह शोएब ख़ान का घर था. कराची पुलिस के पूर्व अधिकारी एसपी फ़ैयाज़ ख़ान ने मुझे बताया कि उस दिन भोलू, शोएब ख़ान से मिलने उनके घर गए थे.
भोलू की गुमशुदगी के बाद चौधरी असलम और राव अनवार जैसे कराची पुलिस के अधिकारियों का अंदाज़ा था कि शायद भोलू की हत्या कर दी गई है. इन पुलिस अधिकारियों को शक था कि भोलू की हत्या में शोएब ख़ान का हाथ हो सकता है.
फिर ‘डॉन’ में छपने वाली कई ख़बरों के अनुसार भोलू की गाड़ी कराची एयरपोर्ट की पार्किंग में खड़ी हुई मिली.
अगर पुलिस की तफ़्तीश, अदालती रिकॉर्ड, मीडिया की ख़बरों, कई साझा दोस्तों, सरकारी अधिकारियों, पुलिस अफ़सरों और फ़ौजी व ग़ैर फ़ौजी ख़ुफ़िया एजेंसियों के वर्तमान व पूर्व पदाधिकारियों की सभी बातचीत को जोड़ लिया जाए तो बड़ी भयानक तस्वीर सामने आती है.
इन विभिन्न स्रोतों ने लगभग एक ही कहानी सुनाई जिसके अनुसार शोएब ख़ान को नहीं मालूम था कि भोलू की गाड़ी में ट्रैकर लगा हुआ था. शोएब ख़ान लगातार इनकार करते रहे कि भोलू की गुमशुदगी में उनका कोई हाथ है.
गाड़ी मिलते ही जांच-पड़ताल करने वालों को पता चला कि एयरपोर्ट ले जाने से पहले भोलू की गाड़ी असल में कई घंटे तक शोएब ख़ान के घर पर खड़ी रही थी.
आख़िरकार, शोएब ख़ान के ख़िलाफ़ भोलू की रहस्यमयी गुमशुदगी का मुक़दमा भोलू के भाई मोहम्मद यूसुफ़ पटनी के आवेदन पर गुज़री थाने में दर्ज कर लिया गया.
शोएब ख़ान को भोलू की गुमशुदगी के मुक़दमे में नामज़द तो कर दिया गया था, मगर वह ज़मानत के ज़रिए गिरफ़्तारी से बचने की कोशिश भी कर रहे थे. भोलू को तो जैसे ज़मीन निगल गई थी या आसमान खा गया था.
भोलू की रहस्यमयी गुमशुदगी का मामला हल नहीं हुआ तो दक्षिण अफ़्रीका में भोलू गैंग ने मामला अपनी तरफ़ से अंजाम तक पहुंचाने का फ़ैसला किया.
इस फ़ैसले के अनुसार कार्रवाई हुई और 21 फ़रवरी 2001 को जब शोएब ख़ान भोलू की हत्या के मुक़दमे में ज़मानत के लिए अदालत लाए गए तो यहां भोलू के समर्थकों और शोएब के साथियों में झड़प हो गई.
यह सब हुआ तो शोएब खान को भी अंदाज़ा हो गया कि बाहर की दुनिया में चारों तरफ़ इतने विरोधियों और दुश्मनों का रहना ख़तरनाक हो सकता है. जेल को सुरक्षित जगह समझते हुए शोएब ख़ान ने 14 जून 2001 को ख़ुद को पुलिस के हवाले कर दिया लेकिन कुछ ही महीनों में भोलू के दोस्तों ने शोएब ख़ान पर दूसरा वार किया.
मेरे शोध के अनुसार 25 अगस्त 2001 को सिटी कोर्ट में शोएब ख़ान को एक पेशी के बाद वापस जेल भेजा जा रहा था. यहां ही शोएब ख़ान पर दूसरा हमला हुआ.
पुलिस अफ़सर फ़ैयाज़ ख़ान का कहना है कि उनकी तफ़्तीश के अनुसार मंज़र- भोलू गैंग के प्रमुख मंज़र अब्बास ने शोएब की हत्या करवाने के लिए लयारी गैंग के सरग़ना रहमान डकैत को दो करोड़ रुपए की सुपारी दी थी.
इस हमले में शोएब ख़ान और वैन में सवार कई पुलिस अधिकारी गंभीर रूप से घायल हो गए. फ़ैयाज़ ख़ान ने बताया कि शोएब ख़ान को हमले में ज़ख़्मी होने का फ़ायदा यह हुआ कि उन्हें मेडिकल बुनियादों पर अदालत से ज़मानत मिल गई मगर भोलू का सुराग़ कई साल तक न मिल सका.
राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ़ की महत्वपूर्ण सहयोगी एमक्यूएम और उस समय सिंध के गवर्नर के हस्तक्षेप के बाद आख़िरकार राष्ट्रपति मुशर्रफ़ के निर्देशों पर शोएब ख़ान की गिरफ़्तारी का नीतिगत फ़ैसला हुआ. इसके बाद 29 दिसंबर 2004 को पंजाब के शहर लाहौर कैंट से शोएब ख़ान को गिरफ़्तार करके कराची लाया गया.
तब शोएब ख़ान ने उच्च स्तरीय अधिकारियों वाली जॉइंट इंटेरोगेशन टीम के सामने अपने कई अपराधों को क़बूल किया और यह भी मान लिया कि उन्होंने भोलू की हत्या कर दी थी.
पुलिस अफ़सर फ़ैयाज़ ख़ान ने मुझे बताया कि शोएब ने अपनी गिरफ़्तारी के बाद पूछताछ के दौरान यह बताया कि उसने भोलू को 8 जनवरी 2001 के दिन ही मार दिया था.
सभी सूत्रों की एक जैसी कहानी के अनुसार शोएब ख़ान ने भोलू को पहले शराब पिलाई. फिर इस बहाने से कि दाऊद इब्राहिम भोलू से नाराज़ हैं और भोलू को उनसे मिलना चाहिए, उन्हें किसी और गाड़ी में डालकर कराची मध्य ज़िले के इलाक़े गुलबर्ग (समनाबाद) स्थित एक मकान पर ले गए. यह मकान शोएब के दोस्त और अंडरवर्ल्ड के एक और खिलाड़ी ख़ालिद शहंशाह के क़ब्ज़े में था.
कैसे और कहां मिला भोलू का शव
भोलू को ले जाते समय शोएब के दो आदमियों ने भोलू के सर पर काला कपड़ा चढ़ाया और हाथ पीछे बांध दिए. इसकी वजह यह बताई गई कि उन्हें दाऊद इब्राहिम के पास ले जाया जा रहा है. इसलिए कराची में दाऊद इब्राहिम के नए ठिकाने का रास्ता न देख सकें या दाऊद इब्राहिम के सामने प्रतिरोध न कर सकें, इसलिए यह सब किया जा रहा है.
भोलू काफी नाराज़ तो हुए मगर आख़िर में शोएब उन्हें इसी हालत में लेकर घर से निकले.
गुलबर्ग पहुंच कर जब भोलू को यह एहसास हुआ कि वह ट्रैप हो गए हैं तो भोलू ने प्रतिरोध की कोशिश की मगर हाथ बंधे होने की वजह से कुछ न कर सके. इसके बाद शोएब और उनके साथियों ने भोलू को गले में फंदा डालकर मार दिया और लाश कमरे की छत में लगे पंखे से लटका दी.
इंसानी जान को खेल समझने वाला, डर और आतंक का प्रतीक और कराची से मोज़ाम्बिक तक जुर्म की दुनिया पर राज करने वाला भोलू कराची में फ़ेडरल बी एरिया के एक औसत दर्जे के मकान में बेबसी से दम तोड़ गया.
फिर मकान के पिछले हिस्से में तारकोल का एक बड़ा सा ख़ाली ड्रम लाश छिपाने के लिए इस्तेमाल किया गया. दस-पंद्रह किलो चूना लाया गया जिसे उस ख़ाली ड्रम में डाला गया और उसमें भोलू की लाश डालकर उसे पानी से भर दिया गया.
एक सूत्र ने बताया कि चूना पानी से मिल जाए तो जल जाता है. भोलू की लाश भी जल गई. आठ-दस दिन तो यह ड्रम बंद रहा जिसमें बची खुची लाश डिकम्पोज़ होती रही.
फिर कई वर्षों बाद शोएब ख़ान ने भोलू के बचे खुचे अवशेष को ड्रम से निकलवा कर न्यू कराची या ख़्वाजा अजमेर नगरी के किसी दूर दराज़ क़ब्रिस्तान के पास फेंकवा दिए. बाक़ी जो कुछ बचा उसे वहीं गुलबर्ग के मकान के पिछले हिस्से के बाग़ीचे में दफ़न करवा दिया.
29 दिसंबर 2004 को शोएब ख़ान ने अपनी गिरफ़्तारी के बाद पुलिस अधिकारियों को तफ़्तीश के दौरान यह सब बातें बताईं. इसके बाद 13 जनवरी 2005 को ‘डॉन’ अख़बार के अनुसार शोएब ख़ान की बताई जगह पर भोलू की लाश के अवशेष 12 जनवरी 2005 को बरामद कर लिए गए.
भोलू की लाश के उन अवशेषों का डीएनए परिवार के सदस्यों से मैच कराया गया. भोलू की लाश के बचे खुचे, सड़े गले अवशेष उसी सिविल अस्पताल में लाए गए थे, इसके पिछले हिस्से में स्थित उर्दू आर्ट्स कॉलेज से केवल 16 साल पहले भोलू ने अपने अपराधों के ‘करियर’ की शुरुआत की थी.
पैंतीस साल पहले जब भोलू ने मुझ पर बंदूक़ तान रखी थी तो उस पल मुझे नहीं पता था कि भोलू की यह कहानी आप तक पहुंचाने के लिए मैं तो ज़िंदा रहूंगा मगर बंदूक़ की नाल मेरी तरफ़ कर देने वाला भोलू ख़ुद मारा जाएगा.
इस सिरीज़ की अगली कड़ी में शोएब के एक और ‘शिकार’ की जानकारी के साथ आपसे फिर मुलाक़ात होगी.
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