अपने ही देश में ‘अदृश्य’, भारत में मुसलमान होने के मायने – BBC News हिंदी
छह साल पहले आगरा के एक नामी स्कूल में पढ़ रहा एक मुस्लिम बच्चा तमतमाया हुआ घर लौटा.
नौ साल के उस बच्चे ने दरवाजा खुलते ही अपनी अम्मी से शिकायत की, “मेरे दोस्तों ने मुझे पाकिस्तानी आतंकवादी कहा.”
लेखिका रीमा अहमद ने उस दिन के वाकये को याद करते हुए बताया, “मेरा बच्चा अपनी मुट्ठी को इतना कस कर भींचे हुए था कि उसकी हथेलियों पर नाखून के निशान साफ दिख रहे थे. गुस्से में वो कांप रहा था.”
रीमा के मुताबिक उनके बच्चे ने बताया था कि क्लासरूम में टीचर नहीं थे. बच्चे नकली लड़ाई लड़ रहे थे.
इस बीच बच्चों के एक ग्रुप ने उसकी ओर उंगली दिखाते हुए कहा, “ये पाकिस्तानी आतंकवादी है. इसे मार डालो.”
रीमा अहमद कहती हैं, “मेरे बच्चे ने बताया कि उसके कुछ सहपाठियों ने उसे नाली का कीड़ा भी कहा था.”
लेकिन रीमा अहमद से कहा गया कि ये मनगढ़ंत बातें हैं. स्कूल में ऐसा कुछ नहीं हुआ था. आखिरकार रीमा अहमद ने अपने बच्चे को स्कूल से निकाल लिया. उनका बच्चा अब सोलह साल का हो गया है उसे अभी तक घर में ही पढ़ाया जा रहा है.
रीमा अहमद कहती हैं, “उस दिन अपने बच्चे के अनुभव से मैंने ये महसूस किया कि देश का मुस्लिम समुदाय किस डर से गुजर रहा है. मैंने बचपन में या बड़ा होते ऐसा कभी महसूस नहीं किया था.”
2014 में नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के साथ ही भारत के लगभग 20 करोड़ मुसलमानों के लिए उथल-पुथल की शुरुआत हो गई थी.
भारत के कुछ हिस्सों में गोरक्षकों ने मवेशी कारोबारियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया था. उस दौरान मुस्लिमों के काम-धंधों को निशाना बनाया गया.
छोटे-मोटे कारोबार करने वाले मुस्लिमों की दुकानों पर हमले किए गए. मस्जिदों के ख़िलाफ़ याचिकाएं दायर की गईं. इंटरनेट पर ट्रोलिंग करने वालों ने मुस्लिम महिलाओं की बोलियाँ लगाई.
दक्षिणपंथी संगठनों और मुख्यधारा के मीडिया के एक हिस्से ने ‘लव जिहाद’ जैसे जुमलों और जिहाद के आरोपों के ज़रिए इस्लामोफ़ोबिया को हवा दी.
मुस्लिम पुरुषों और हिंदू महिलाओं की शादी को ‘लव जिहाद’ कहा जाने लगा. ये आरोप लगाए जा रहे थे कि मुस्लिम युवक हिंदू युवतियों को ‘प्रेम जाल’ में फंसा कर उनसे शादी कर रहे हैं और जबरन धर्म परिवर्तन करा रहे हैं.
हाल के कुछ वर्षों में हेट स्पीच के मामले भी बढ़े हैं. ऐसे 75 फीसदी मामले बीजेपी शासित राज्यों में हुए हैं.
‘बीइंग मुस्लिम इन हिंदू इंडिया’ नाम की किताब के लेखक ज़िया उस्सलाम कहते हैं, “भारत में मुस्लिम दूसरी श्रेणी के नागरिक बन गए हैं. अपने ही देश में वो अदृश्य अल्पसंख्यक बन गए हैं.”
लेकिन बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं मानते कि देश के अल्पसंख्यकों के साथ बुरा बर्ताव हो रहा है.
प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दिनों ‘न्यूज़वीक’ पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में कहा, “इस तरह की बातें वो करते हैं जो अपने बुलबुले से बाहर जाकर लोगों से मिलने की जहमत नहीं उठाते. यहां तक कि अब भारत के अल्पसंख्यक भी इस नैरेटिव को नहीं मानते.”
‘व्हाट्सऐप ग्रुप छोड़ना पड़ा’
रीमा अहमद का परिवार आगरा में दशकों से रह रहा है. लंबी संकरी गलियों और घनी आबादी वाले इस शहर में उनके कई हिंदू दोस्त हैं, लेकिन अब उन्हें भी बदलाव महसूस हो रहा है.
2019 में उन्होंने स्कूल के एक व्हाट्सऐप ग्रुप को छोड़ दिया था. इस ग्रुप में सिर्फ दो मुस्लिम थे.
ये वाकया उन दिनों का है जब भारत ने पाकिस्तान में उग्रवादियों के ख़िलाफ़ हवाई हमले किए थे.
ग्रुप के एक मैसेज में कहा गया था, “अगर वो हम पर मिसाइलों से हमला करेंगे तो हम उन्हें घर में घुस कर मारेंगे.”
ये मैसेज नरेंद्र मोदी के उस बयान से प्रेरित था, जिसमें उन्होंने आतंकवादियों और भारत के दुश्मनों को घर में घुसकर मारने की बात कही थी.”
रीमा कहती हैं, “मुझे गुस्सा आ रहा था. मैंने अपने दोस्तों से पूछा कि उन्हें क्या हो गया है. क्या आप नागरिकों और बच्चों की हत्या का समर्थन करते हैं.”
रीमा शांति की वकालत करती रही हैं.
उन्होंने कहा, “मेरे इस मैसेज का तुरंत जवाब आया. किसी ने मुझसे पूछा, “क्या आप मुसलमान होने की वजह से पाकिस्तान का समर्थन कर रही हैं? वो मुझे भारत विरोधी कह रहे थे.”
“मैंने अहिंसा की पैरवी की थी, लेकिन मुझे राष्ट्र विरोधी बताया जाने लगा था. मैंने उनसे कहा कि मुझे अपने देश का समर्थन करने के लिए हिंसक होने की जरूरत नहीं है, लेकिन इस घटना के बाद मैंने ग्रुप छोड़ दिया.”
माहौल में कुछ और बदलाव भी दिख रहे हैं.
रीमा अहमद का घर काफी लंबे समय तक उनके बेटे के सहपाठियों की पसंदीदा जगह हुआ करता था. हर धर्म के लड़के और लड़कियों का उनके घर में आना-जाना रहता था, लेकिन अब लव जिहाद के शोर से वो सतर्क हो गई हैं.
वो अपने घर आने वाली हिंदू लड़कियों को जल्दी अपने घर लौटने को कहती हैं.
वो कहती हैं, “मेरे अब्बा और मैंने अपने बेटे को बिठा कर समझाया और कहा कि माहौल ठीक नहीं है. तुम्हें अपनी दोस्तियां सीमित करनी होगी. सावधान रहो. घर से बाहर ज्यादा देर तक मत घूमो. न जाने कब मामला ‘लव जिहाद’ का बन जाए.”
पर्यावरण कार्यकर्ता इरम की पांचवीं पीढ़ी आगरा में रह रही है. वो स्थानीय स्कूलों में काम कर चुकी हैं. उन्होंने शहर के बच्चों की बातचीत में बदलाव को महसूस किया है.
उन्होंने एक बच्चे को अपने मुस्लिम सहपाठी से कहते सुना, “मुझसे बात मत करो. मेरी मां ने मना किया है.”
इरम कहती हैं, “मैं सोच रही हूं अगर ऐसा हो रहा है तो निश्चित तौर पर ये मुसलमानों के प्रति लोगों में गहरे बैठे डर का अक्स है. ये डर एक ऐसी चीज में बदल जाएगा जो आगे जाकर संभाले नहीं संभलेगा.’’
लेकिन इरम के कई हिंदू दोस्त हैं और वे एक मुसलमान महिला के तौर पर असुरक्षित महसूस नहीं करतीं.
मटन की डिलीवरी करने पर गिरफ्तार
सिर्फ बच्चों के बीच हिंदू-मुस्लिम के सवाल पर दोस्तियां ख़राब नहीं हो रही हैं. चहल-पहल भरी आगरा की एक गली के किनारे अपने छोटे से दफ़्तर में बैठे स्थानीय पत्रकार सिराज कुरैशी भी घटते हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की बात करते हैं.
उन्होंने हाल की एक घटना का ज़िक्र किया. उन्होंने बताया कि शहर में मटन की डिलीवरी करने वाले एक शख़्स को दक्षिणपंथी हिंदू संगठन के कुछ लोगों ने रोका और उसे पुलिस के हवाले कर दिया. बाद में उस शख़्स को जेल भेज दिया गया.
कुरैशी कहते हैं, “उसके पास मटन डिलीवरी का लाइसेंस था. इसके बावजूद पुलिस ने उसे गिरफ़्तार कर लिया. बाद में उसे छोड़ना पड़ा.”
मुस्लिम समुदाय के कई लोगों ने इस बात पर गौर किया है कि मुसलमान यात्री ट्रेनों से यात्रा करते हुए सावधानी बरत रहे हैं.
वो उन कथित घटनाओं को लेकर सतर्क हो गए हैं, जिनमें ट्रेन में कथित तौर पर बीफ ले जाने वालों पर हमले हुए थे.
‘पब्लिक ट्रांसपोर्ट से यात्रा करने में लगता है डर’
रीमा अहमद कहती हैं, “हम सब अब इसे लेकर सतर्क हैं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट में यात्रा करते वक्त हम मासांहारी खाना ले जाने से बचते हैं और हो सके तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट से यात्रा ही नहीं करते.”
कलीम अहमद कुरैशी सॉफ्टवेयर इंजीनियर थे, लेकिन अब ज्वैलरी डिजाइन करते हैं और म्यूजिक में हाथ आजमाते हैं.
उनका परिवार पिछली सात पीढ़ियों से आगरा में रहता आ रहा है. कलीम शहर में ‘हेरिटेज वॉक’ भी कराते हैं.
वो बताते हैं, “एक दिन मैं रबाब लेकर जा रहा था (सरोद जैसा वाद्य यंत्र). दिल्ली से आगरा जाते वक्त़ मैं एक शेयर्ड टैक्सी में बैठा. टैक्सी में बैठते ही मेरे हिंदू सहयात्री ने मुझसे रबाब केस खोल कर दिखाने को कहा.
“उसे डर था कि कहीं मैं बंदूक तो नहीं ले जा रहा हूं. मुझे लगता है कि मेरा नाम जानकर उसे ऐसा लगा होगा.”
वो कहते हैं, “अब सफर करते हुए मुझे ये चिंता बनी रहती है. यात्रा करते हुए मुझे अब इस बात को लेकर सतर्क रहना पड़ता है कि मैं कहां हूं. क्या कह रहा हूं और क्या कर रहा हूं. यहां तक कि ट्रेन में टिकट चेकर के सामने अपना नाम बताते हुए भी मैं असहज महसूस करता हूं.”
कुरैशी को इस समस्या की असली वजह साफ दिख रही है. वो कहते हैं, “राजनीति ने अलग-अलग समुदायों के आपसी रिश्तों में जहर घोल दिया है.”
क्या बीजेपी हिंदू राष्ट्र स्थापित कर रही है?
लेकिन बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता जफ़र इस्लाम कहते हैं, “मुस्लिमों को चिंतित होने की कोई वजह नहीं है. कुछ गैर जिम्मेदार मीडिया घरानों की वजह से इस्लामोफोबिया पैदा हो रहा है.”
वो कहते हैं, “कहीं एक छोटी सी घटना होती है और मीडिया उसे इस तरह से बढ़ा-चढ़ा कर पेश करता है, मानो पहले ऐसा कभी हुआ ही न हो. एक अरब चालीस करोड़ लोगों के देश में दो समुदायों के बीच या समुदायों के भीतर इस तरह की घटनाएं हो सकती हैं.”
“आप सिर्फ एक या दो घटनाओं के आधार पर ये नहीं कह सकते हैं कि देश की सत्ताधारी पार्टी मुस्लिम विरोधी है. जो लोग इस तरह की घटनाओं को मुसलमानों पर हो रहे हमले के तौर पर दिखा रहे है वो गलत हैं.”
मैंने जफ़र इस्लाम से पूछा कि अगर उनका बच्चा स्कूल से आकर कहता कि उसके साथ पढ़ने वालों ने उसे ‘पाकिस्तानी आतंकवादी’ कहा होता तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती?
मेरे इस सवाल के जवाब में वो कहते हैं, “किसी भी दूसरे माता-पिता की तरह मुझे भी बुरा लगता. ये स्कूल की जिम्मेदारी है कि ऐसे मामले न हों. माता-पिताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वो ऐसी चीजें न कहें.”
जफ़र इस्लाम बैंकर रह चुके हैं. उनके दो बच्चे हैं. एक अभी स्कूल में पढ़ रहा है.
जफर इस्लाम से मैंने पूछा कि इस चर्चा के बारे में क्या कहना चाहेंगे कि बीजेपी हिंदू राष्ट्र स्थापित कर रही है.
वे कहते हैं, “लोग जानते हैं कि लोगों के बीच बार-बार कही जाने वाली बात है. क्या हमारी सरकार ने ऐसी कोई बात कही है. हमारा मीडिया ऐसी बातें कहने वाले लोगों को इतनी जगह क्यों देता है. जब मीडिया ऐसी बातें कहता है तो हमें अच्छा नहीं लगता है.”
लेकिन मुस्लिम प्रतिनिधित्व में जो कमी आई है उसके बारे में क्या कहेंगे?
बीजेपी सरकार में कोई मुस्लिम मंत्री नहीं है. संसद के दोनों सदन में इस पार्टी का कोई मुस्लिम सांसद नहीं है. देश के 1000 से ज्यादा विधायकों में बीजेपी का सिर्फ एक विधायक मुसलमान है.
इस सवाल के जवाब में इस्लाम कहते हैं कि ऐसा जानबूझकर नहीं किया गया है.
वो कहते हैं, “कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल बीजेपी को हराने के अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए मुस्लिमों का इस्तेमाल कर रहे हैं. कोई पार्टी मुस्लिम उम्मीदवार खड़े करे लेकिन मुसलमान ही उसे वोट न दें तो फिर कोई पार्टी ऐसे लोगों को टिकट क्यों देगी?”
ये सच है कि भारत में 2019 लोकसभा चुनाव में सिर्फ नौ फीसदी मुस्लिम मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया और वो लगातार बीजेपी के ख़िलाफ़ गोलबंद होकर वोट दे रहे हैं.
2020 में बिहार विधानसभा चुनाव में 77 फीसदी मुसलमानों ने बीजेपी गठबंधन के ख़िलाफ़ वोट दिया था. वहीं 2021 में पश्चिम बंगाल में 75 फीसदी मुस्लिमों ने तृणमूल कांग्रेस को वोट दिया था.
2022 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में 79 फीसदी मुस्लिमों ने समाजवादी पार्टी को वोट दिया था.
भारत में मुसलमानों का भविष्य?
जफर इस्लाम कहते हैं कि कांग्रेस की अगुवाई वाले विपक्ष ने मुसलमानों में ‘डर और चिंता’ बिठा दी है ताकि वो हमेशा उनके वफादार बने रहें, जबकि मोदी सरकार दो समुदायों के बीच कोई भेदभाव नहीं करती.
वो कहते हैं, “सरकार की कल्याणकारी योजनाएं हर व्यक्ति के पास पहुंच रही हैं. मुस्लिम इन स्कीमों के सबसे बड़े लाभार्थी हैं. पिछले दस साल में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ है.”
जबकि 2020 में नागरिकता कानून के मुद्दे पर दिल्ली में हुए दंगों में 50 लोगों की मौत हो गई थी. इनमें से ज्यादातर मुस्लिम थे. हालांकि भारत में आज़ादी से पहले और उसके बाद भी भीषण दंगों का इतिहास रहा है.
जफ़र इस्लाम कहते हैं कि मुस्लिम अपने आपको मुख्यधारा से काटकर रखते हैं तो ये उनकी ही गलती है.
वो कहते हैं, “मुस्लिमों को अपने अंदर झांक कर देखना चाहिए. वो न तो खुद को सिर्फ वोट बैंक के तौर पर देखें और न ही धार्मिक नेताओं के असर में आएं.”
“मोदी जी समाज को एकजुट करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं ताकि लोग खुशी-खुशी एक साथ रहें और गुमराह न हों.”
मैंने उनसे पूछा कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उन्हें भारत में मुसलमानों का भविष्य क्या लगता है?
मेरे इस सवाल के जवाब में जफर इस्लाम कहते हैं, “मुझे भविष्य बहुत अच्छा दिखता है. लोगों की मानसिकता में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है. अब ज्यादा से ज्यादा मुसलमान बीजेपी में शामिल होंगे. चीजें बेहतर होती नज़र आ रही हैं.”
ये कहना मुश्किल है कि चीजें बेहतर हो रही हैं या नहीं.
बिहार की आरज़ू की राह कितनी आसान?
ये सही है कि इस उथल-पुथल भरे वक़्त के बीच कई मुस्लिमों का मानना है कि समुदाय मंथन की प्रक्रिया से गुजर रहा है.
सलाम कहते हैं, “आज मुस्लिम लोग अपने अंदर झांक रहे हैं और शिक्षित हो रहे हैं. समुदाय के काबिल और जरूरतमंद बच्चों को शिक्षित करने के लिए मुस्लिम शिक्षाविद् और बुद्धिजीवी लगातार कोशिश कर रहे हैं. अपने बल पर सुधार करना काबिले तारीफ है, लेकिन ये सरकार में विश्वास की कमी को भी दिखाता है.”
देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक बिहार की आरज़ू परवीन उन लोगों में हैं जो शिक्षा को गरीबी से बाहर निकलने के रास्ते के तौर पर देखती हैं.
लेकिन रीमा अहमद के बेटे की तरह धार्मिक तनाव उनकी तरक्की की राह का रोड़ा नहीं है. बल्कि उनके पिता ही इस तरक्की की राह रोक रहे हैं. आरज़ू के पिता का मानना है लोग क्या सोचेंगे.
वो कहती हैं, “घर में पैसे की तंगी है. मैं बड़ी हो रही हूं. गांव वाले इस बारे में बात करते रहते हैं, लेकिन मैंने अपने पिता से कहा कि हम हमेशा इस तरह से नहीं रह सकते. महिलाएं आगे बढ़ रही हैं. हम अपने भविष्य को दांव पर नहीं लगा सकते.”
आरज़ू का सपना डॉक्टर बनने का है. जब से उसने ये सुना है कि उसकी मां की मौत एक स्थानीय अस्पताल में इलाज के दौरान हो गई थी तभी से उसके मन में डॉक्टर बनने की इच्छी तेज हो गई है.
आरज़ू ने जब से गांव के शिक्षकों से ये बात सुनी है कि लड़कियां इंजीनियर और डॉक्टर बन रही हैं तब से उसे विश्वास होने लगा है कि उसका सपना भी पूरा हो सकता है.
यही सोच कर उसने पढ़ने में दिल लगाया और एक साल के भीतर वो उच्च शिक्षा हासिल करने की दिशा में कदम बढ़ाने वाली अपने परिवार की पहली महिला बन गई.
उच्च शिक्षा के लिए गांव से निकलने की उसकी राह किसी सरकारी स्कूल ने नहीं बनाई. ये काम किया ‘रहमानी 30’ ने.
सपनों को हकीकत में बदलता ‘रहमानी 30’
‘रहमानी 30’ गरीब मुस्लिम बच्चों के लिए मुफ्त़ कोचिंग क्लास चलाता है. एक पूर्व मुस्लिम राजनेता और एकेमेडिशियन मौलाना वली रहमानी ने इस संस्थान की नींव रखी है.
‘रहमानी 30’ फिलहाल 850 बच्चों को कोचिंग दे रहा है. इनमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल हैं. बिहार की राजधानी पटना समेत तीन शहरों में बच्चों को कोचिंग दी जाती है.
कोचिंग के लिए चुने गए बच्चे ‘रहमानी 30’ के किराये के मकानों में रहते हैं और इंजीनियरिंग, मेडिकल और चार्टर्ड अकाउंटेंसी जैसे कोर्स की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करते हैं.
इनमें से कइयों की पहली पीढ़ी पढ़ाई कर रही है. कई फल विक्रेताओं, खेत मजदूरों, श्रमिकों और कंस्ट्रक्शन मजदूरों के बच्चे हैं.
‘रहमानी 30’ से कोचिंग लेकर 600 बच्चे आज सॉफ्टवेयर इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट और दूसरे पेशेवरों के तौर पर काम कर रहे हैं. छह बच्चे डॉक्टर बन चुके हैं.
अगले साल आरज़ू भी उन 20 लाख प्रतियोगियों में शामिल हो जाएंगी जो हर साल 707 मेडिकल कॉलेजों की एक लाख से ज्यादा सीटों के लिए होड़ करते हैं.
आरजू़ कहती हैं, “मैं इस चैलेंज के लिए तैयार हूं. मैं स्त्री रोग विशेषज्ञ बनना चाहती हूं.”
जब शाकिर ने कहा- सफल होकर ही लौटूंगा
मोहम्मद शाकिर ‘रहमानी 30’ में पढ़ाई को बेहतरीन जिंदगी का पासपोर्ट मानते हैं.
वो कहते हैं यहां से पढ़ाई से मिलने वाले मौके के जरिये वो अपने गरीब परिवार का संघर्ष खत्म कर सकेंगे.
15 साल के शाकिर और उनके दोस्त पिछले साल अप्रैल में छह घंटे के बस का सफर पूरा कर पटना पहुंचे थे. इस दौरान वो ऐसे जिले से गुजरे थे जो एक हिंदू त्योहार के दौरान भड़के दंगों का शिकार हो चुका था.
उस सफर में उनके पास सिर्फ एक बोतल पानी और कुछ खजूर थे. रात उन्होंने एक मस्जिद में बिताई थी.
अगले दिन वो ‘रहमानी 30’ में एडमिशन के लिए प्रतियोगी परीक्षा में बैठे और आखिरकार कामयाब रहे.
शाकिर कहते हैं, “मेरे माता-पिता बहुत डरे हुए थे. वो कह रहे थे मत जाओ, लेकिन मैंने कहा अभी नहीं तो कभी नहीं. अभी नहीं गया तो मुझे पता नहीं कि मेरा भविष्य क्या होगा.”
लेकिन कंप्यूटर साइंटिस्ट का सपना देखने वाले इस किशोर को धार्मिक तनाव चिंतित करता नहीं दिखता.
शाकिर कहते हैं, “मैंने अपनी मां से कहा था कि मैं परीक्षा में सफल होकर ही लौटूंगा. मुझे रास्ते में कुछ नहीं होगा. आखिर मैं ये क्यों सोचूं कि मेरे साथ गलत ही हो जाएगा. मेरे गांव के मुसलमान और हिंदू मिलजुल कर रहते हैं.”
डर गहरा होता जा रहा है
तो दुनिया के सबसे बड़ी आबादी वाले इस देश में वर्ग, जाति और पंथ और धार्मिक आधार पर बंटे मुसलमानों का भविष्य कैसा है?
सलाम मुसलमानों के अंदर बैठते जा रहे डर की बात करते हैं.
वो कहते हैं, “लोग मुस्लिमों में बेरोजगारी और महंगाई की बात करते हैं. लेकिन सिर्फ महंगाई और रोजगार का सवाल नहीं है. ये जीने के अधिकार की बात है.”
हाल में कुछ युवा मुस्लिमों के संस्मरणों में ऐसा दिखा है.
जायद मसरूर ख़ान अपनी हालिया किताब ‘सिटी ऑन फायर: अ ब्वॉयहुड इन अलीगढ़’ में लिखते हैं, “लगभग हर किसी ने कोई न कोई देश चुन रखा है जहां वो कोई अनहोनी घटना हो जाने पर दौड़ कर पहुंच सके. कुछ लोग कनाडा, अमेरिका, तुर्की या ब्रिटेन में रह रहे अपने चाचाओं-मामाओं से संपर्क में हैं, ताकि राजनीतिक शरण की जरूरत होने पर मदद हो सके. यहां तक कि मेरे जैसा व्यक्ति जो इस सांप्रदायिक हिंसा के दौर में सुरक्षित महसूस करता रहा वो भी अब अपने घर में परिवार के भविष्य को लेकर चिंतित है.”
आगरा में रह रहीं रीमा अहमद भी भविष्य की अनिश्चितताओं का दबाव महसूस कर रही हैं.
वो कहती हैं, “शुरुआत में मैंने सोचा कि ये सब (मुस्लिमों को निशाना बनाया जाना) इक्का-दुक्का मामले हैं, गुजर जाएंगे. दस साल हो चुके, लेकिन अब मैं सोचती हूं कि बहुत कुछ खो चुका है. बहुत कुछ बरबाद हो चुका है.”
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