इसराइल-ग़ज़ा युद्ध: छह महीने बाद हालात बद से बदतर, अमन की आहट नहीं – BBC News हिंदी
इसराइल पर हमास के हमले को छह महीने बीत चुके हैं. इस दौरान युद्ध, बीमारी, भुखमरी और मौतों ने ग़ज़ा के फ़लस्तीनियों को बर्बाद कर दिया है.
इस मुद्दे पर इसराइल भी बुरी तरह बंटा हुआ है. प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू इस युद्ध में संपूर्ण जीत का जो दावा कर रहे थे उसे पूरा करने में वो संघर्ष करते दिख रहे हैं.
इसराइल इस युद्ध को जिस तरह से लड़ रहा है उससे उसका सबसे अहम सहयोगी, अमेरिका भी उसके ख़िलाफ़ होता दिख रहा है.
पिछले दिनों सीरिया में ईरान के एक प्रमुख जनरल की हत्या कर दी गई, जिसका आरोप ईरान ने इसराइल पर लगाया.
एक तरफ ईरान ने इस हत्या का बदला लेने की कसम खाई है तो दूसरी तरफ लेबनान में मौजूद ईरान के सहयोगी हिजबुल्लाह के साथ महीनों से इसराइल का संघर्ष चल रहा है.
ईरान के जनरल की हत्या के बाद मध्य पूर्व के इस युद्ध की चपेट में आने का ख़तरा पैदा हो गया है.
हमास के स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ युद्ध में अब तक ग़ज़ा में रहने वाले 33 हज़ार लोग मारे जा चुके हैं.
बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन ‘सेव द चिल्ड्रन’ के मुताबिक,ग़ज़ा में 13 हजार 800 फ़लस्तीनी बच्चों की मौत हो चुकी है, 12 हजार 9 से अधिक बच्चे घायल हैं. यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के मुताबिक़ कम से कम 1 हजार बच्चों के एक या दोनों पैर कट गए हैं.
बीते साल 7 अक्टूबर को हमास ने इसराइली इलाक़ों पर हमला किया था. इस हमले में 1,200 से अधिक इसराइली नागरिक मारे गए थे. हमास के लड़ाके 253 लोगों को बंधक बनाकर अपने साथ ले गए थे.
इसराइल का कहना है कि अभी भी हमास के पास 130 इसराइली बंधक हैं और उनमें से कम से कम 34 की मौत हो चुकी है.
संयुक्त राष्ट्र की एक टीम की मार्च में जारी रिपोर्ट के मुताबिक़ उसके पास इस बात की “साफ़ और ठोस जानकारी” है कि बंधकों को “बलात्कार, यौन उत्पीड़न, क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार समेत” यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है.
रिपोर्ट के मुताबिक़ यह मानने के पर्याप्त आधार हैं कि बंधकों को लगातार हिंसा का शिकार बनाया जा रहा था.
कहानी उस गांव की जहां के लोग फ़लस्तीनियों के साथ शांति चाहते थे
किबुत्ज़ निर ओज़, ग़ज़ा की सीमा से सटे इसराइली इलाके़ में है. यहां ऐसा लगता है कि जैसे कोई टाइम कैप्सूल अभी भी 7 अक्टूबर 2023 के दिन में अटका हुआ है.
उस दिन सूरज की पहली रोशनी के पड़ने के तुरंत बाद ही हमास ने सीमा पर लगी बाड़ तोड़ दी थी. दोपहर में जब तक इसराइली सेना पहुंचती तब तक वहां रहने वाले लगभग 400 इसराइलियों को या तो हमास के लड़ाकों ने मार डाला था या बंधक बना लिया था.
रॉन बाहात ने मुझे वो इलाक़ा दिखाया. 50 साल के रॉन निर ओज़ में पले-बढ़े हैं. उनका भाग्य अच्छा था कि उस दिन के हमले में वो बच गए. उनके परिवार के पास अपने घर में बने सेफ़ हाउस के दरवाजे बंद करने के अच्छे औजार थे. उस दिन उन्होंने इसी सेफ हाउस में छिपकर अपनी जान बचाई थी.
हम यहां की साफ-सुथरी गलियों में चल रहे थे, जिसके दोनों तरफ लाइनों में छोटे-छोटे घर थे. यहां के बगीचे अब बेतरतीब तरीके से उग रहे हैं. यहां कई लोगों को गोलियां लगी थीं. कई मकानों की दीवारों में गोलियां से छेद हो गए थे.
रॉन ने उन दोस्तों और पड़ोसियों के घरों की ओर इशारा किया जो या तो मारे गए थे या जिन्हें हमास के लड़ाके बंधक बनाकर ग़ज़ा ले गए थे.
बुरी तरह ध्वस्त एक मकान में हमें करीने से इस्तिरी किए गए बच्चों के कपड़ों का ढेर दिखा. ये आग से किसी तरह बच गया था. जो परिवार वहां रह रहा था उसका अब तक पता नहीं चला.
विडंबना ये है कि निर ओज़ वामपंथी विचारधारा से जुड़े अभियान का हिस्सा रहा है. इसमें शामिल सदस्य आमतौर पर फ़लस्तीन के साथ शांति बनाए रखने के समर्थक हैं.
लेकिन हमास के हमले के छह महीने बाद रॉन बाहात अब ग़ज़ा में रहने वालों के प्रति किसी तरह की रियायत देने के हिमायती नहीं रह गए हैं.
वो कहते हैं, “मैं चाहूंगा कि उन्हें कोई ऐसा नेता मिले जो वहां शांति और संपन्नता लेकर आए, क्योंकि आख़िर में हमें शांति चाहिए, लेकिन जो भी हमास का समर्थन करता है वो हमारा दुश्मन है. अगर वो अपने हथियार डाल दें तो युद्ध रुक जाएगा, लेकिन अगर इसराइल ने हथियार डाल दिए तो हम सब ख़त्म हो जाएंगे. दोनों में यही फर्क है.”
निर ओज़ की गलियों में अभी भी कांच के टुकड़े बिखरे पड़े हैं, घरों से जली लकड़ियों और प्लास्टिक की बदबू आ रही है. यहां के कुछ निवासी लौट कर तो आए लेकिन केवल कुछ वक्त के लिए. ये लोग फिलहाल केंद्रीय इसराइल में होटलों में पनाह लिए हुए हैं.
निर ओज़ की रहने वाली यामित अविताल कहती हैं कि वो कुछ घंटों के लिए वापस आई हैं. वो एक दोस्त को कुछ दिखा रही हैं.
वो बताती हैं कि जिस दिन हमास का हमला हुआ वो तेल अवीव में थीं. उनके पति घर पर थे और बच्चों के साथ भाग गए थे. उनका एक भाई जो उनके घर से कुछ ही दूरी पर रहता था, वह हमले में मारा गया.
यामित जब निर ओज़ में फिर से रहने के लिए वापस आने की बात कर रही थीं तो उनके हाथ कांपने लगे थे.
उन्होंने कहा, “मुझे पता नहीं. अभी ये कहना जल्दबाज़ी होगी…. शायद जब बंधक वापस आ जाएं तो हम इसके बारे में सोचना शुरू कर सकते हैं. हम अभी इसके बारे में नहीं सोच सकते. ग़ज़ा में मेरे बहुत सारे दोस्त हैं.”
ग़ज़ा के हालात के बारे में कम जानकारी
जिस तरह रॉन ने मुझे निर ओज़ गांव दिखाया था उस तरह से कोई भी मुझे ख़ान यूनुस या ग़ज़ा शहर के तबाह हुए घर या रफ़ाह के 14 लाख विस्थापितों के तंबुओं को नहीं दिखा सका.
ऐसा इसलिए क्योंकि अंतरराष्ट्रीय पत्रकार ग़ज़ा से रिपोर्ट नहीं कर सकते हैं. यहां सीमा पर नियंत्रण रखने वाले इसराइल और मिस्र उन्हें अंदर आने की इज़ाज़त नहीं दे रहे हैं.
एकमात्र अपवाद इसराइली सेना (आईडीएफ) की ओर से कराए जाने वाले दौरे हैं, जो बेहद निगरानी वाले माहौल में होते हैं.
बीते साल नवंबर की शुरुआत में मैं ऐसे ही एक दौरे में उत्तरी ग़ज़ा गया था. युद्ध शुरू होने के एक महीने में ही इसराइली हमलों ने इस इलाके़ को बंजर ज़मीन में बदल दिया था.
हमास और इसराइली सेना दोनों की ओर से किए गए युद्ध अपराधों के सबूत इकट्ठा किए जा रहे हैं.
हेग में मौजूद इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस दक्षिण अफ्रीका की ओर से इसराइल पर लगाए “संभावित” जनसंहार के आरोप की जांच कर रहा है.
ये अदालत हमास के ख़िलाफ मुक़दमा नहीं चला सकती, क्योंकि अमेरिका और ब्रिटेन समेत कई अन्य देशों ने इसे एक आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है. हमास कोई देश नहीं है.
इसराइल और अंतरराष्ट्रीय अदालत
इसराइल ने खुद पर लगे जनसंहार के आरोपों को ख़ारिज कर दिया है.
इसके कई नागरिकों और समर्थकों के लिए यह आरोप अजीब और अपमानजनक है. उनका मानना है कि नाज़ी जर्मनी ने साठ लाख यहूदियों का नरसंहार किया था, इसराइल पर जनसंहार का आरोप लगाना बेतुका है.
इसराइल के वकीलों में से एक टाल बेकर ने हेग की अदालत में कहा कि इसराइल और फ़लस्तीन दोनों ओर नागरिकों को आज जिस परेशानी से गुजरना पड़ रहा है वो हमास की रणनीति का नतीज़ा है.
लेकिन फ़लस्तीनी इसे दूसरे नज़रिये से देखते हैं. उनका कहना है कि इसराइली सेना ने फ़लस्तीनियों के इलाके़ पर कब्जा कर एक ऐसा ‘स्टेट’ बना लिया है जहां उनके साथ भेदभाव होता है और उन्हें उनके बुनियादी अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है.
ईस्टर के मौक़े पर यरुशलम में एक प्रमुख फ़लस्तीनी ईसाई राजनीतिक कार्यकर्ता दिमित्री दिलियानी ने मुझसे कहा, “बच्चों की हत्या, बच्चों की हत्या है चाहे वो किसी के भी हों. इसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है?”
वो कहते हैं, “मैं नाज़ी होलोकॉस्ट की बात मानता हूं लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मेरे या फिर दूसरे लोगों की हत्या के लिए इसराइल को हरी बत्ती दिखा दी गई है.”
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में इस मामले को अभी सालों लगेंगे. इसराइल पर आरोप लगाने वालों को ये साबित करना होगा कि जनसंहार हुआ है और इरादतन हुआ है.
सवाल ये है कि युद्ध और नागरिकों की मौतें अपने आप में जनसंहार नहीं बन जातीं.
दक्षिण अफ्रीका की क़ानूनी टीम का कहना है कि 9 अक्टूबर को इसराइल के रक्षा मंत्री योआव गैलांट ने जो बयान दिए थे वो उनके जनसंहार के इरादे को ही दिखाते हैं.
बीरशेहा में इसराइली सेना की दक्षिणी कमान का दौरा करने के बाद उन्होंने कहा था, “मैंने ग़ज़ा पट्टी की पूरी तरह से घेराबंदी करने का आदेश दिया है. वहां न बिजली होगी, न खाना और ना ईंधन, सब कुछ बंद रहेगा.”
उन्होंने कहा था, “हम इंसान रूपी जानवरों से लड़ रहे हैं, लिहाजा हम इसी के मुताबिक़ कदम उठाएंगे.”
ग़ज़ा, भुखमरी और अकाल
इसराइल पर हमास से बात करने और शांति स्थापित करने को लेकर अंतरराष्ट्रीय दबाव है, ख़ास कर अमेरिका का जिसने उसे नाकेबंदी में राहत देने को कहा है. इसके बावजूद ग़ज़ा तक राहत सामग्री की पहुंच कम ही रही है.
फूड इमरजेंसी से जुड़ी जानकारी देने वाले संयुक्त राष्ट्र के संगठन और एड एजेंसियों का कहना है कि युद्ध के छह महीने बाद ग़ज़ा में अकाल के बादल मंडरा रहे हैं.
ऑक्सफैम की रिपोर्ट है कि उत्तरी ग़ज़ा में फंसे 30 हज़ार लोग जनवरी से रोज़ाना औसतन 245 कैलोरी पर जी रहे हैं. ये एक पैकेटबंद बीन्स के टिन में मौजूद खाद्य सामग्री से मिलने वाले पोषण के बराबर है.
फ़लस्तीनी पत्रकारों, सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वाले नागरिकों और सहायता अभियान चलाने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने ग़ज़ा में मानवीय त्रासदी और तबाही का विस्तार से दस्तावेज़ीकरण किया है.
ये वो लोग हैं जिनके कर्मचारियों को इस इलाके़ में घुसने की अनुमति है. ऐसे लोगों को ख़तरे भी उठाने पड़ रहे हैं. लाखों लोगों को खाना मुहैया कराने वाले संगठन वर्ल्ड सेंट्रल किचन (डब्ल्यूसीके) के सात लोगों को एक अप्रैल को इसराइली सेना ने मार डाला.
इन मौतों से अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और इसराइल समर्थक दूसरे पश्चिमी देश नाराज हैं. इस घटना के बाद इसराइल अलग-थलग पड़ने लगा है.
इसराइल को इस मामले में दुनिया के अधिकतर देशों के समर्थन की उम्मीद नहीं है, लेकिन अपने पश्चिमी सहयोगियों से वो समर्थन की उम्मीद रखता है, लेकिन इसकी बजाय, उन्होंने इसराइल के उस दावे को खारिज कर दिया कि वो राहत सामग्री पहुंचाने के रास्ते में बाधा नहीं डालता.
राहत सामग्री वितरण के काम में लगे संगठन के कर्मचारियों के मारे जाने से बाइडन नाराज़ हैं. इस घटना के बाद उन्होंने इसराइल पर दबाव डाला कि वो ग़ज़ा तक मानवीय मदद की पहुंच के लिए रास्ते दे.
हो सकता है कि ग़ज़ा में अमेरिकी हथियारों के इस्तेमाल से जुड़ी कड़ी शर्तें लगाने की बात भी उन्होंने की होगी.
ऐसा लगता है कि वर्ल्ड सेंट्रल किचन के कार्यकर्ताओं पर इसराइली हमला वो बिंदु था, जहां बाइडन के सब्र का बांध टूट गया.
बाइडन अपने राजनीतिक करियर में लंबे समय तक इसराइल का समर्थन करते रहे हैं. इसराइल के समर्थन में अब भी उनका विश्वास है, लेकिन अमेरिका खुद को नेतन्याहू और उनके अतिवादी सहयोगियों के सेफ्टी नेट की भूमिका में देखता है.
राहत सामग्री पहुंचाने वालों की मौत के बाद उठे ज़रूरी सवाल
कई फ़लस्तीनी अब ये सवाल कर रहे हैं कि ग़ज़ा के हज़ारों नागरिकों के मारे जाने के बाद भी इस मुद्दे पर इसराइल पर दबाव बनाने के लिए क्या मुल्क सात राहतकर्मियों की मौत (जिनमें छह विदेशी नागरिक थे) तक इंतज़ार कर रहे थे.
राहत एजेंसियों का कहना है कि राहत सामग्री बांटने वालों पर हमले की ये कोई पहली घटना नहीं थी, बल्कि ये फ़लस्तीनी नागरिकों की जीवन के प्रति उपेक्षा का नतीजा है.
इस पूरे मामले में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की नाराज़गी भले ही देरी से आई हो लेकिन ये युद्ध के लिए अहम मोड़ साबित हो सकता है.
इसका क्या असर पड़ रहा है ये आंकने का एक तरीका ये हो सकता है कि आने वाले महीने में ये देखा जाए कि ग़ज़ा में मारे जाने वाले फ़लस्तीनी लोगों की संख्या कम हुई या नहीं या फिर ज़रूरी मानवीय मदद और दवाएं ग़ज़ा में पहुंच सकी या नहीं.
एक और तरीका ये देखना होगा कि नेतन्याहू क्या अमेरिका का विरोध करेंगे और रफ़ाह पर हमला करेंगे.
नेतन्याहू का कहना है कि हमास के कुछ संगठित यूनिट यहां काम कर रहे हैं और उन्हें ख़त्म किया जाना चाहिए. इसका अमेरिका विरोध कर रहा है.
अमेरिका का कहना है कि ग़ज़ा के लोग भागकर शरण लेने के लिए रफ़ाह आए हैं और जब तक इसराइल यहां के 15 लाख लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं करता, उसे हमला नहीं करना चाहिए.
इसराइल के भीतर भी बदल रहे हालात
सात अक्तूबर के हमास के हमले के बाद में नेतन्याहू ने हमास पर बड़े हमले का अपना वादा पूरा किया, लेकिन बंधकों की रिहाई और हमास के पूरे ख़ात्मे का उनका वादा अभी तक पूरा नहीं हो सका है. इसराइल के भीतर उन पर दबाव बढ़ रहा है. ओपिनियन पोल्स में उनकी रेटिंग कम हो रही है.
बीते सप्ताह यरुशलम में हज़ारों लोगों ने हाथों में इसराइली झंडे लेकर प्रदर्शन किया. ये प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री नेतन्याहू के इस्तीफ़े और फिर से चुनावों की मांग कर रहे थे.
नोवा रोसालियो, इसराइल में नेतन्याहू विरोधी अभियान का नेतृत्व करती हैं. उनके समूह का नाम बुशा है जिसका हिब्रू में मतलब है ‘शर्म’.
नोवा रोसालियो कहती हैं, “नेतन्याहू जितना हो सके युद्ध को लंबा खींचना चाहते हैं, क्योंकि वो कह सकते हैं कि युद्ध जारी है इसलिए ये चुनावों का वक्त नहीं है.”
वो कहती हैं, “वो कह रहे हैं कि ये देखने का समय नहीं कि कौन ज़िम्मेदार है. इसलिए बंधकों को छुड़ाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं और युद्ध को और खींचना चाहते हैं.”
बीते साल जिस वक्त हमास ने इसराइल पर हमला किया, इसराइल में उनकी सरकार की दक्षिणपंथी नीतियों, धर्मनिरपेक्ष वालों और धार्मिक इसराइलियों के बीच सांस्कृतिक तनाव जारी था और लोगों की राय बंटी हुई थी.
उनके ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हो रहे थे. जिन रिज़र्व सैनिकों ने इन प्रदर्शनों में हिस्सा लेने के लिए अपनी सैन्य सेवा निलंबित कर दी थी, युद्ध शुरू होते ही वो फिर वर्दी में आ गए. राष्ट्रीय एकता के हित में विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगा दी गई.
अब छह महीने बाद, युद्ध ख़त्म करने और बंधकों की रिहाई में सरकार की नाकामी के ख़िलाफ़ विरोध करने को राष्ट्रीय एकता के ख़िलाफ़ नहीं माना जा रहा. इसराइल के भीतर लोगों के बीच मतभेद एक बार फिर खुलकर सामने आ गए हैं.
बढ़ रही नेतन्याहू की मुश्किलें
पीएम नेतन्याहू पर आरोप लग रहे हैं कि अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखना उनकी प्राथमिकता है. कहा जा रहा है कि सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें अपने गठबंधन को बनाए रखना होगा, जिसमें अतिवादी राष्ट्रवादी यहूदी पार्टियों का समर्थन हासिल है.
वो इसराइली बंधकों को छुड़ाने के लिए देश की जेलों में बंद फ़लस्तीनी कैदियों की रिहाई का विरोध करते हैं, और युद्धविराम को लेकर रही बातचीत में हमास इसकी मांग कर रहा है.
नेतन्याहू के दो मुख्य अति राष्ट्रवादी विचारधारा वाले सहयोगी, वित्त मंत्री बेज़ालेल स्मॉट्रिच और राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री इतेमार बेन-ग्विर तो इससे भी एक कदम आगे हैं. इन दोनों की मांग है कि फ़लस्तीनी ग़ज़ा पट्टी छोड़ दें ताकि इस इलाक़े में यहूदी बस सकें.
वहीं राजनीति के खेल के माहिर ख़िलाड़ी नेतन्याहू बैलेंस कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. वो एक तरफ उन्हें खुश रखने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ स्मोट्रिच और बेन-ग्विर के विचारों को सरकारी नीति का हिस्सा बनने से रोक भी रहे हैं.
अक्टूबर के हमले से पहले इसराइल के भीतर के मतभेदों ने उसे हमास के लिए असुरक्षित बना दिया होगा और युद्ध के छह महीने बाद इसराइल के भीतर के हालात और भविष्य को लेकर उसके मतभेद, अब इस युद्ध को जीतना उनके लिए मुश्किल बना रहे हैं.
इसराइल के लिए जीत का एक मौक़ा वो हो सकता है जब वो हमास के नेता और सात अक्टूबर के हमलों के मास्टरमाइंड याह्या सिनवार को पकड़ ले या फिर उन्हें ख़त्म कर दे, लेकिन वो अभी तक जीवित हैं और जहां छिपे हैं वहीं से युद्धविराम को लेकर चल रही वार्ता के प्रस्तावों पर अपनी प्रतिक्रिया भेज रहे हैं.
माना जा रहा है कि वो हमास की सुरंगों के जाल में कहीं छिपे बैठे हैं. वो अंगरक्षकों से घिरे हैं और इसरायली बंधकों की मानव ढाल की मदद से उनकी सुरक्षा की जा रही है.
याह्या सिनवार को इस बात से निराशा हुई होगी कि पूर्वी यरुशलम के साथ-साथ वेस्ट बैंक में रहने वाले फ़लस्तीनी ग़ज़ा के समर्थन में नहीं उठ खड़े हुए.
हो सकता है कि कुछ लोग ये देखने का इंतज़ार कर रहे हों कि ग़ज़ा में और ख़ासकर मध्य पूर्व में आगे क्या होता है.
हज़ारों लोग अपने परिवार का पेट पालने में व्यस्त होंगे क्योंकि हमास के हमले के बाद इसराइल ने फ़लस्तीनियों को इसराइल में काम करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया है. कई डरे हुए भी होंगे.
इसराइल ने वेस्ट बैंक में सशस्त्र समूहों के ख़िलाफ़ छापेमारी की है. इस कोशिश में कई मासूम लोगों की हत्या हुई है, हज़ारों लोगों को गिरफ्तार किया गया है. इन्हे बिना सुनवाई के इसराइली जेलों में रखा गया है.
कुछ फ़लस्तीनी किसानों को पास रहने वाले यहूदी निवासियों की हिंसा और धमकियों के बाद अपनी ज़मीन छोड़कर भागना पड़ा है.
हमास और फ़लस्तीन
ओपिनियन पोल्स की मानें तो सात अक्टूबर को हुए हमलों के लिए फ़लस्तीनियों में जबरदस्त समर्थन है, हालांकि कई इस बात से भी इनकार करते हैं कि हमास ने इस दौरान अत्याचार किए थे.
वेस्ट बैंक के रामल्लाह में इसराइल के ख़िलाफ़ एक विरोध प्रदर्शन में फ़लस्तीनी कार्यकर्ता ज़ोहरा बेकर से मैंने पूछा कि क्या हमास के हमलों के बाद अब फ़लस्तीनी इसराइल से आज़ादी के कऱीब हैं.
उन्होंने इससे इनकार किया और कहा “सात अक्टूबर को जो हुआ, वह लंबे वक्त के उत्पीड़न के बाद हुई एक घटना है… हमारा संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक हम आज़ाद नहीं हो जाते.”
जाने माने फ़लस्तीनी विश्लेषक खलील शिकाकी कहते हैं कि जो लोग हमास को नापसंद करते थे, वो भी ये मानते हैं कि उसके हमलों ने फ़लस्तीन की आज़ादी की इच्छा को मध्य पूर्व के मैप में वापस ला दिया है. इसके लिए युद्ध ने एक नया रास्ता तैयार किया है.
उनका किया नया सर्वे बताता है कि युवा फ़लस्तीनी अब दो-राष्ट्र समाधान में यकीन नहीं करते.
वो कहते हैं कि 30 से कम उम्र के युवा मानते हैं कि भूमध्यसागर और जॉर्डन नदी के बीच का इलाक़ा एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप होना चाहिए, जहां वो अपने गणतांत्रिक अधिकार पा सकें.
अपने संघर्ष की तुलना वो दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेद के ख़िलाफ़ हुए संघर्ष से करते हैं. वो कहते हैं कि उनके पास एक फ़लस्तीनी नेल्सन मंडेला है, जो इसराइल की एक जेल में इंतज़ार कर रहा है.
ये व्यक्ति हैं मारवान बारगॉटी, जो 2002 से जेल में है और हत्या के लिए पांच उम्रक़ैद काट रहे हैं. यदि वह राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव में उतरते हैं तो संभव है कि वो आसानी से जीत जाएं.
वो हमास के प्रतिद्वंद्वी फ़लस्तीनी गुट, फ़तह के नेता हैं. मारवान बारगॉटी का नाम हमास ने उन लोगों की लिस्ट में डाला है जिनकी रिहाई की मांग वो इसराइली बंधकों की रिहाई के बदले कर रहे हैं.
यहूदी इसरायली अपने राज्य की यहूदी पहचान को छोड़ सकें, ये लगभग असंभव है. लेकिन फ़लस्तीनी इसकी संभावना देख रहे हैं.
ग़ज़ा का भविष्य
छह महीने बीत जाने के बाद भी युद्ध के ख़त्म होने के कोई संकेत नहीं दिखते. नेतन्याहू अब तक इस बारे में कोई जानकारी देने से बचते रहे हैं कि युद्ध के बाद ग़ज़ा का शासन कौन और कैसे चलाएगा.
हालांकि वो ये कहते रहे हैं कि इस इलाक़े पर इसराइल का नियंत्रण (या कहें, कब्ज़ा) होना चाहिए.
उन्होंने अमेरिका के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है जिसमें उसने कहा था कि वहां इसराइली सैनिकों की जगह वेस्ट बैंक में शासन करने वाले फ़लस्तीनी प्राधिकरण की सेना को तैनात किया जाए.
अमेरिका चाहता है कि यहां फ़लस्तीनी प्राधिकरण को फिर से पैरों पर खड़ा किया जाए जो आख़िर में ग़ज़ा का शासन संभाले.
इसके लिए नए नेतृत्व की ज़रूरत होगी. मौजूदा फ़लस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास की अब उम्र हो रही है और वो अलोकप्रिय भी होते जा रहे हैं.
फ़लस्तीनियों का कहना है कि वो भ्रष्टाचार से लड़ने और ग़ज़ा को लेकर सहानुभूति दिखाने में तो नाकाम रहे ही हैं, इसराइली कब्ज़े वाले इलाक़ों में रह रहे इसराइलियों से फ़लस्तीनी नागरिकों की रक्षा के लिए पुलिस को लगाने में भी नाकाम रहे हैं.
उन पर ये भी आरोप है कि उन्होंने इसराइल के साथ सुरक्षा सहयोग जारी रखा है.
इससे पहले नेतन्याहू ने मध्य पूर्व की तस्वीर बदलने को लेकर आए जो बाइडन के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया था. प्रस्ताव के अनुसार फ़लस्तीन की आज़ादी के बदले सऊदी अरब इसराइल को मान्यता देगा और बदले में सऊदी अरब को अमेरिका के साथ नेटो की तरह का सैन्य सहयोग करने का मौक़ा मिलेगा.
इसके उलट नेतन्याहू इसराइली नागरिकों से कहते रहे हैं कि अमेरिका फ़लस्तीन राष्ट्र को बनाए रखना चाहता है, लेकिन वो अकेले व्यक्ति हैं जो फ़लस्तीन से उन्हें बचा सकता है. उनकी सरकार में शामिल अति राष्ट्रवादी नेता यही सुनना चाहते हैं क्योंकि वो मानते हैं कि सऊदी अरब के साथ समझौता करने से बेहतर होगा कि वो वेस्ट बैंक और यरुशलम पर कब्ज़ा बनाए रखें.
युद्धविराम के लिए बंद कमरे में चल रही बातचीत से दूर ज़मीनी स्तर पर युद्धविराम की संभावना में बड़ी मुश्किलें आ गई हैं.
1950 और 60 के दशक में हत्याओं, अपहरणों और संघर्ष के दशकों के बाद से फ़लस्तीनी और इसराइली एक दूसरे को पहले इस तरह शक़ की नज़र से नहीं देखते थे.
खलील शिकाकी कहते हैं कि सात अक्टूबर से दोनों तरफ से एक दूसरे को कमतर कर देखने की एक प्रक्रिया शुरू हो गई है.
वो कहते हैं, “फ़लस्तीनियों को शांति का साथ देने वालों के तौर पर नहीं देखा जा रहा. सात अक्टूबर के हमले के कारण उन्हें ऐसे लोगों के रूप में देखा जा रहा है जिन्हें बराबरी का दर्जा नहीं मिलना चाहिए. इसराइली उनकी मानवता पर सवाल उठाते हैं. इसी तरह ग़ज़ा के हालात देखने वाले इसराइलियों की मानवता को लेकर सवाल उठाते हैं.”
“वो कहते हैं कि जानबूझकर महिलाओं और बच्चों को निशाना बनाने वाले, परिवारों को ख़त्म करने वाले इंसान नहीं हो सकते. वो उन्हें राक्षसों के रूप में देखते हैं.”
खलील शिकाकी कहते हैं, “इंसान को जानवर के रूप में देखने की ये प्रक्रिया भविष्य के लिए विनाशकारी है.”
अतिरिक्त रिपोर्टिंग: ओरेन रोसेनफेल्ड, फ्रेड स्कॉट कैथी लॉन्ग
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